बीजाक्षर_क्या_है ? , क्या_है_ब्रह्म_मंत्र ? PARASHMUNI

#बीजाक्षर_क्या_है ?
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1-मंत्र का शाब्दिक अर्थ होता है एक ऐसी ध्वनि  जिससे मन का तारण हो अर्थात मानसिक कल्याण हो जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है  ''मन को तारने वाली ध्वनि ही मंत्र है''। वेदों में शब्दों के संयोजन से इस प्रकार की कल्याणकारी ध्वनियां उत्पन्न की गई।माना जाताहै कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सारी आध्यात्मिक शक्तियां होती हैं जिन्हें मंत्रों के द्वारा प्रयोग में लाया जा सकता है।

 3-बीजमंत्र  स्पंदन है ,आत्मा की पुकार है।सृष्टि का आरंभ बीजाक्षर मंत्र का स्पंदन ही है। नौ शब्दों तक बीज मंत्र कहते है ।नौ शब्दों से अधिक होने से मंत्र, और बीस शब्दों से अधिक होने से उसको महामंत्र कहते है ।

 4-वृक्ष के बीज जैसा 'बीजाक्षर' भी मंत्र के बीज जैसा है। जिसे गाने से साधक को सकारात्मक शक्ति का लाभ होता है। जितना ज्यादा  गायेगे ;उतना अधिक सकारात्मक शक्ति का लाभ होगा और वृक्ष जैसी वृद्धि होगी  ।

 5-वास्तव में, सृष्टि आरंभ का प्रथम स्पंदन ‘ॐ’ बीजाक्षर मंत्र ही है । ‘ॐ’ बीजाक्षर मंत्र ही क्रमशः योग बीज, तेजोबीज, शांतिबीज, और रक्षा बीज जैसा व्यक्तीकरण हुआ है। ‘ऐं’ ‘ह्रीं’ ‘श्रीं’ ‘क्लीं’ ‘क्रीं’ ‘गं’ ‘ग्लौं’ ‘लं’ ‘वं’ ‘रं’ ‘यं’ ‘हं’ और ‘रां’ बीजाक्षर ‘ॐ’ से ही उत्पन्न हुए  है।संगीत में प्रथमाक्षर ‘ॐ’ ही है। वह क्रमशः ‘स’ ‘रि’ ‘ग’ ‘म’ ‘प’ ‘द’ ‘नि’ जैसा रूपांतर हुआ है। बाँसुरी वादन में निकलनेवाली प्रथम शब्द ‘ॐ’ ही है।

 6-मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष से इन आध्यात्मिक शक्तियों को उत्तेजित किया जाता है। हालांकि इसके लिए सिर्फ मंत्रोंच्चारण काफी नहीं है बल्कि दृढ़ इच्छा शक्ति से ध्वनि-संचालन एवं नैष्ठिक आचार भी जरुरी है।तंत्र साधना के मंत्रों में मंत्रोच्चारण की शुद्धि व मंत्रोचार के दौरान विशेष नियमों का पालन करना होता है।
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👉 बीजाक्षर-मंत्रों द्वारा अदभुत चमत्कारी लाभ और चिकित्सा

1-बीज मन्त्रों से दैहिक, दैविक, और भौतिक अनेकों रोगों का सफल निदान हो सकता है ।
आवश्यकता केवल अपने अनुकूल और प्रभावशाली मन्त्र चुनने और उसका शुद्ध उच्चारण से मनन-गुंजन करने की होती है। बीज के अर्थ से अधिक आवश्यक उसका शुद्ध उच्चारण ही है।
जब एक निश्चित लय और ताल से मंत्र का सतत जप चलता है तो उससे नाडियों में स्पंदन होता है |उस स्पंदन के घर्षण से विस्फोट होता है और ऊर्जा उत्पन्न होती है,जो षट्चक्रों को चैतन्य
करती है |
2-इस समस्त प्रक्रिया के समुचित अभ्यास से शरीर में प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होते और
शरीर की आवश्यकता अनुरूप शरीर का पोषण करने में सहायक हारमोन आदि का सामंजस्य बना रहता है और तदनुसार शरीर को रोग से लड़ने की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढने
लगती है |पौराणिक , वेद , शाबर आदि मन्त्रों में बीज मन्त्र सर्वाधिक प्रभावशाली सिद्ध होते हैं, उठते बैठते , सोते जागते उस मंत्र का सतत शुद्ध उच्चारण करते रहे तो आपको चमत्कारिक रूप से अपने अन्दर अंतर दिखाई देने लगेगा। 

3-यह बात सदैव ध्यान रखें  कि... 
3-1-बीज मन्त्रों में उसकी शक्ति का सार उसके अर्थ में नहीं बल्कि उसके विशुद्ध उच्चारण को एक निश्चित लय और ताल से करने में है । 
3-2-बीज मन्त्र में सर्वाधिक महत्त्व उसके बिंदु(ं) में है और यह ज्ञान केवल वैदिक व्याकरण के सघन ज्ञान द्वारा ही संभव है। 
3-3-आप स्वयं देखें कि एक बिंदु के तीन अलग अलग उच्चारण हैं |उदाहरण के लिए...
1-गंगा शब्द (अं) ड प्रधान है । 
2-गंदा शब्द (न) प्रधान है।
3-गंभीर शब्द (म) प्रधान है |
 (अर्थात एक ही बिन्दी में क्रमशः (ड), (न), और (म) तीन स्वरों का उच्चारण हो रहा है ।।) 
4-कौमुदी सिद्धांत के अनुसार वैदिक व्याकरण
को तीन सूत्रों द्वारा स्पष्ट किया गया है ...
 4-1-मोनुस्वर 
 4-2-यरोनुनसिकेनुनासिको  
 4-3-अनुस्वारस्य 
5-बीज मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण में सस्वर पाठ भेद के उदात्त तथा अनुदात्त अंतर को स्पष्ट किये बिना शुद्ध जाप असंभव है और इस अशुद्धि के कारण ही मंत्र का सुप्रभाव नहीं मिल पाता। इसलिए सर्व प्रथम किसी बौद्धिक व्यक्ति से अपने अनुकूल मन्त्र को समझ-परख कर उसका
विशुद्ध उच्चारण अवश्य जान लें ।अपने अनुकूल चयनित किया गया बीजाक्षर मंत्र-जप अपनी सुविधा और समयानुसार चलते-फिरते , उठते-बैठते अर्थात किसी भी अवस्था में किया जा सकता है इसका उद्देश्य केवल शुद्ध उच्चारण , एक निश्चित ताल और लय से नाड़ियों में स्पंदन करके स्फोट उत्पन्न करना है ।

 6-बीज मंत्रों के बीजाक्षरों का अर्थ साधारण व्यक्ति के लिए समझना बहुत मुश्किल है उसे ये निर्रथक लगते हैं लेकिन माना जाता है कि ये बीजाक्षर सार्थक हैं और इनमें एक ऐसी शक्ति अन्तर्निहित रहती है जिससे आत्मशक्ति या फिर देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है। ये बीजाक्षर अन्त:करण और वृत्ति की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं, जिनसे आत्मिक शक्ति का विकास किया जा सकता है।बीजाक्षर और बीजाक्षर में निहित वर्ण बिंदु एवं मांत्राएं किसी न किसी देवी-देवता का प्रतिनिधित्व करती है।  
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 7- बीजाक्षरों की निष्पत्ति के सम्बन्ध में बताया गया है...

''ककार से लेकर हकार पर्यंत व्यञ्जन बीजसंज्ञक हैं और आकरादि स्वर शक्तिरूप हैं। मंत्र बीजों की निष्पत्ति बीज और शक्ति के संयोग से होती है।''

सारस्वत बीज, मायाबीज, शुभनेश्वरी बीज, पृथ्वी बीज, अग्निबीज, प्रणवबीज, मारुतबीज, जलबीज, आकाशबीज आदि की उत्पत्ति उक्त हल् और अंचों (स्वरों) के संयोग से हुई है। यों तो बीजाक्षरों का अर्थ बीज कोश एवं बीज व्याकरण द्वारा ही ज्ञात किया जाता है।

8-मंत्र की सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर है ध्यान के अस्थिर होने से भी मंत्र
असफल हो जाता है। मन्त्र तभी सफल होता है, जब श्रद्धा भक्ति तथा संकल्प दृढ़ हो। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सी आध्यात्मिक शक्तियां भरी
रहती हैं। इन्हीं शक्तियों को मंत्र द्वारा प्रयोग में लाया जाता है।मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा
आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है। 

9-मंत्र की सफलता साधक और साध्य के ऊपर निर्भर है ध्यान के अस्थिर होने से भी मंत्र असफल हो जाता है।मन्त्र तभी सफल होता है, जब श्रद्धा भक्ति तथा संकल्प दृढ़ हो। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य की अवचेतना में बहुत सी आध्यात्मिक शक्तियां भरी रहती हैं।इन्हीं शक्तियों को मंत्र द्वारा प्रयोग में लाया जाता है।मंत्र की ध्वनियों के संघर्ष द्वारा आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है।इस कार्य में अकेली विचार शक्ति काम नहीं करती है। इसकी सहायता के लिये उत्कट इच्छा शक्ति के द्वारा ध्वनि -संचालन की भी आवश्यकता है।

10-मंत्र शक्ति के प्रयोग की सफलता के लिये नैष्ठिक आचार की भी आवश्यकता है।मंत्र निर्माण के लिए ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूँ ह्रौं ह्र: ह्रा ह स: क्लीं द्रां द्रीं द्रँ द्र: श्रीं क्षीं क्ष्वीं र्हं क्ष्वीं र्हं अं फट् वषट् संवौषट घे घै य: ख ह् पं वं यं झं तं थं दं आदि बीजाक्षरों की आवश्यकता होती है।साधारण व्यक्ति को ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु हैं ये सार्थक और इनमें ऐसी शक्ति अन्तर्निहित रहती है, जिसमें आत्मशक्ति या देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है।अत: ये बीजाक्षर अन्त:करण और वृत्ति की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं, जिनसे आत्मिक शक्ति का विकास किया जा सकता है।

11-मातृकाओं का महत्त्व

 11-1- मातृकाएं शक्तिपुञ्ज हैं। शक्ति मातृकाओं से भिन्न नहीं है।जो व्यक्ति मन्त्र— बीजो मे निबद्धकर इन मातृकाओं का व्यवहार करता है, वह आत्मिक और भौतिक दोनों प्रकार की शक्तियों का विकास कर लेता है। मातृकाएं बीजाक्षरों और पल्लवों के साथ मिलकर आकर्षण विकर्षणों को उत्पन्न करने में समर्थ हो जाती हैं। मातृकाएं बीजों में निबद्ध हो कर चाञ्चल्य का सृजन भी करती हैं, जिससे किसी भी पदार्थ में टूट -फूट की क्रिया उत्पन्न होती है। यह क्रिया ही शक्ति का आधार स्रोत है और इसी से मन्त्र -जाप द्वारा चमत्कारी कार्य उत्पन्न किये जाते हैं।
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11-2-वर्तमान विज्ञान भी यह बतलाता है कि बीजमंत्रों में निहित शक्ति ब्यूह हमारी इन्द्रियों को उत्तेजित कर देता है और यह उत्तेजना जलतरंग की अनुरणन ध्वनि के तुल्य क्रमश: मन्द, तीव्र, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर होती हुई कतिपय क्षणों तक रणन करती रहती है। इसी प्रकार बीजों का घर्षण की शक्ति—व्यूह का संचार करता है। इसी कारण आचार्यों ने कहा है—''दुष्टवर्ण मन्त्र में प्रयुक्त होकर कभी भी सिद्धि प्राप्त नहीं करा सकते हैं। सिद्धि, साधन नक्षत्र, राशि और ग्रह परिशुद्ध बीज हैं, इन्हीं बीजों द्वारा चमत्कारपूर्ण भौतिक शक्तियां प्राप्त की जाती हैं।''
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 👉 18 बीजाक्षर-मंत्रों के लाभ
 1-कां; - 

पेट सम्बन्धी कोई भी विकार और विशेष रूप से आँतों की सूजन में लाभकारी |
 2-गुं;-

मलाशय और मूत्र सम्बन्धी रोगों में उपयोगी |
 3-शं ;-

वाणी दोष , स्वप्न दोष , महिलाओं में गर्भाशय सम्बन्धी विकार और हार्निया आदि रोगों में उपयोगी है |
 4-घं;- 

काम वासना को नियंत्रित करने वाला और मारण-मोहन और
उच्चाटन आदि के दुष्प्रभाव के कारण जनित रोग विकार को शांत करने में सहायक है |
 5-ढं ;-

मानसिक शांति देने में सहायक तथा आभिचारिक कृत्यों जैसे मारण- मोहन-स्तम्भन आदि प्रयोगों से उत्पन्न हुए विकारों में उपयोगी है |
 6-पं; -

फेफड़ों के रोग जैसे टी वी , अस्थमा , श्वास रोग आदि के लिए गुणकारी है |
 7-बं ;-

शुगर , वामन , कफ विकार , जोड़ों के दर्द एवं सभी वात रोगों में आदि में सहायक है|
 8-यं ;-

बच्चों के चंचल मन को एकाग्र करने में अंत्यंत सहायक |
 9-रं; -

उदर विकार , शरीर में पित्त जनित रोग , ज्वर आदि में उपयोगी है|
 10-लं; - 

महिलाओं के अनियमित मासिक धर्म , उनके अनेक गुप्त रोग तथा विशेष रूप से आलस्य को दूर करने में उपयोगी है |
 11-मं; -

महिलाओं में स्तन सम्बन्धी विकारों में सहायक है ।
 12-धं ;-

तनाव से मुक्ति के लिए , मानसिक संताप दूर करने में उपयोगी है।
 13-ऐं ;-

वात नाशक , रक्त चाप , रक्त में कोलेस्ट्रोल , मूर्छा आदि असाध्य रोगों तथा पित्त रोगों में सहायक है |
 14-द्वां; -

कान के समस्त रोगों में सहायक है |
 15-ह्रीं; -

कफ विकार जनित रोगों में सहायक है |
 16-शुं ;-

आँतों के विकार तथा पेट सम्बन्धी अनेक रोगों में सहायक है |
 17-हुं ;-

यह बीज एक प्रबल एंटीबायोटिक सिद्ध होता है | गाल-ब्लैडर , अपच , लिकोरिया आदि रोगों में उपयोगी है|
 18-अं; -
पथरी , बच्चों के कमजोर मसाने , पेट की जलन , मानसिक शान्ति आदि में सहायक इस बीज का सतत जाप करने से शरीर में शक्ति का संचार उत्पन्न होता है।

नोंध

 बीज मन्त्रों  की पूर्ण जानकारी और निर्देश लेने के बाद और उच्चारण शुद्ध होने पर ही इनका प्रयोग करें | कोई भी शब्द भिन्न प्रकार से उपयोग करने पर उसकी शक्ति अलग ही प्रभाव देती है | अतः सावधानी रखें।
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 👉 #बीजाक्षरों का संक्षिप्त कोष(४२)

1-ऊँ—प्रणव, ध्रव, तैजस बीज है।
2-ऐं—वाग् और तत्त्व बीज है।
3-क्लीं --काम बीज  है।
4-प—अप् बीज है। 
5-स्वा—वायु बीज है।

6-हा:—आकाश बीज है।

7-ह्रीं—माया और त्रैलोक्य बीज है। 
8-क्रों—अंकुश और निरोध बीज है। 
9-आ—फास बीज है।

10-फट्—विसर्जन और चलन बीज है। 
11-वषट्—दहन बीज है।

12-वोषट्—आकर्षण और पूजा ग्रहण बीज है।

13-संवौषट्—आकर्षण बीज है। 
14-ब्लूँ—द्रावण बीज है।

15-ब्लैं—आकर्षण बीज है।

16-ग्लौं—स्तम्भन बीज है।

17-क्ष्वीं—विषापहार बीज है। 
18-द्रां द्रीं क्लीं ब्लूँ स:—ये पांच बाण बीज हैं। 
19-हूँ—द्वेष और विद्वेषण बीज है। 
20-स्वाहा—हवन और शक्ति बीज है। 
21-स्वधा—पौष्टिक बीज है।

22-नम:—शोधन बीज है।

23-श्रीं—लक्ष्मी बीज है।

24-अर्हं—ज्ञान बीज है।

25-क्ष: फट्—शस्त्र बीज है।

26-य:—उच्चाटन और विसर्जन बीज है। 
27-जूँ—विद्वेषण बीज है।

28-श्लीं—अमृत बीज है।

29-क्षीं—सोम बीज है। 
30-हंव—विष दूर करने वाला बीज है।
31-क्ष्म्ल्व्र्यूं— पिंड बीज है।

32-क्ष—कूटाक्षर बीज है। 
33-क्षिप ऊँ स्वाहा—शत्रु बीज है। 
34-हा:—निरोध बीज है।

35-ठ:—स्तम्भन बीज है।

36-ब्लौं—विमल पिंड बीज है। 
37-ग्लैं—स्तम्भन बीज है।

38-घे घे—वद्य बीज है।

39-द्रां द्रीं—द्रावण संज्ञक है। 
40-ह्रीं ह्रूँ ह्रैं ह्रौ ह्र:—शून्य रूप बीज हैं।

41-क्षि—पृथ्वी बीज है।

42-हो—शासन बीज है।
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👉 #मंत्रों_के_प्रधान_भेद

मंत्र साधक बीज मंत्र और उनकी ध्वनियों के घर्षण से अपने भीतर आत्मिक शक्ति का प्रस्फूटन करता है। मंत्र शास्त्र में इसी कारण मंत्रों के अनेक भेद बताये गये हैं।

(1) स्तम्भन :- 

जिन ध्वनियों के द्वारा सर्प, व्याघ्र सिंह आदि भयंकर जन्तुओं को भूत, प्रेत, पिशाच आदि दैविक बाधाओं को , शत्रु सेना के आक्रमण तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा किये जाने वाले कष्टों को दूर कर इनको जहाँ के तहाँ निष्क्रिय कर स्तम्भित कर दिया जावे उन ध्वनियों के सन्निवेश को स्तम्भन मंत्र कहते हैं।

(2) सम्मोहन :- 

जो किसी प्राणी के मन पर अत्यन्त प्रभाव डाले जो कहें वह करे उसको सम्मोहन कहते हैं।

(3) उच्चाटन :- 

जिन मंत्रों के द्वारा किसी का मन अस्थिर उल्लास रहित एवं निरुसाहित होकर पदभ्रष्ट एवं स्थान भ्रष्ट हो जावे, उन ध्वनियों के सन्निवेश को उच्चाटन मंत्र कहते है।

(4) वश्याकर्षण :- 

जिस मंत्र के द्वारा इच्छित वस्तु या व्यक्ति, साधक के पास आ जावे, किसी को दास के समान वश में करना, विपरीत मन वाले साधक की अनुवूâलता स्वीकार कर लें उसको वशीकरण कहते हैं।

(5) विद्वेषण :- 

जिनके द्वारा कुटुम्ब, जाति, देश, समाज, राष्ट्र आदि में परस्पर कलह और वैमनस्य की क्रान्ति मच जावे उन मंत्रों को विद्वेषण कहते हैं।

(6) मारण :- 

साधक मंत्र बल के द्वारा प्राणदण्ड दे सके उन ध्वनियों के सानवेश को मारण मंत्र कहते हैं।

(7) शान्तिक :- 

जिसके द्वारा भयंकर से भयंकर व्याधि, व्यन्तर—भूत पिशाचों की पीड़ा, क्रूूर ग्रहजंगमस्थावर, विषबाधा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि दुर्भिक्षादि और चोर आदि का भय प्रशांत हो जावे उस मंत्र को शान्ति मंत्र कहते हैं।

(8) पौष्टिक :- 

जिस मंत्र के द्वारा सुख सामग्रियों की प्राप्ति हो उन मंत्रों को पौष्टिक मंत्र कहते हैं।

मंत्र, तंत्र, यंत्र की सिद्धि करने के लिये द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, समयशुद्धि, आसनशुद्धि, विनयशुद्धि ,मन:शुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि आदि का ध्यान रखना आवश्यक है।

नोंध

मंत्र और सिद्धि परस्पर जुड़े हुए शब्द हैं पर इसके लिये कई तथ्यों को ध्यान में रखते हुए उनका सम्यक् पालन आवश्यक है। विधिवत् पालन न करने से इसमें असफलता मिलती हैं, फलस्वरूप अश्रद्धा उत्पन्न होती है इसीलिए आचार्यों ने कहा है कि—

''मंत्र साधना में सफलता का मूल आधार चित्त की एकाग्रता है। मन्त्र अपने आप में देवता है, अत: लौकिक एवं पारलौकिक सिद्धियों एवं सफलताओें के लिए इससे बढ़कर अन्य कोई साधन नहीं है।''
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👉 #बीजाक्षर  विवरण

1-‘ॐ’

 संयुक्तं ‘ॐ’कार...अकार ,उकार ,मकार यानी  तीन शब्दों का सम्मिळित है।  सृष्टि (ब्रह्म), स्थिति (विष्णु) और लय (महेश्वर) त्रिमूर्ति  का प्रतीक है ‘ॐ’कार।अकार ऋग्वेद का , उकार सामवेद का ,और मकार यजुर्वेद का प्रतीक है। 

2-क्रीं अथवा थं, अथवा क्षं अथवा लं

2-1-सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए।  अब अनामिका अंगुली के अग्रभाग को अंगुष्ठ के अग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। इस प्रकार पृथ्वी मुद्रा में बैठना है।कूटस्थ मे दृष्टि रखे।मन का ध्यान मूलाधार चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए। पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए। शरीर को थोडा ढीला रखीए। 

2-2-यह माँ काली  और कुबेर का बीजाक्षर है।इस का उच्चारण मूलाधार चक्र में करना चाहिए। मूलाधार चक्र पृथ्वी तत्व का प्रतीक है।क्रीम्  अथवा थम्, अथवा क्षम् अथवा लम् का उच्चारण से इच्छाशक्ति का वृद्धि होगा। आरोग्य, बल, सभी तरह का सफलता, और नकारात्मक शक्तियों से रक्षण लभ्य होता है।     

 3-श्रीं अथवा वं

3-1-सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अब कनिष्ठ अंगुली के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से लगाए और दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। इसप्रकार वरुण मुद्रा में बैठना है।  कूटस्थ मे दृष्टि रखे! मन का  ध्यान स्वाधिष्ठान चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए! पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए।शरीर को थोडा ढीला रखीए। 

3-2-श्रीं अथवा वं महालक्ष्मी का बीजाक्षर है। इस का उच्चारण स्वाधिष्ठान  चक्र में करना चाहिए।  स्वाधिष्ठान चक्र वरुण तत्व का प्रतीक है। श्रीं अथवा वं का उच्चारण से क्रियाशक्ति का वृद्धि होगा।आरोग्य, अंगों में बल, सभी तरह का सफलता, गुर्दो(kidneys), और त्वचा (skin)का व्याधियों से उपशमन मिलेगा, और नकारात्मक शक्तियों से रक्षण लभ्य होता है। रोगनिरोधक शक्ति में बढ़ावा मिलेगा। सुंदर और अनुकूलवती भार्या का प्राप्ति, और सुख दांपत्य जीवन लभ्य होगा।     

4-ह्रौं अथवा दूं अथवा रं

4-1-सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! अब अनामिका अंगुली के आग्रभाग को अंगुष्ठ के मूलभाग से दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। इस प्रकार अग्नि मुद्रा में बैठना है। कूटस्थ मे दृष्टि रखे। मन का  ध्यान मणिपुर चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए । पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए। शरीर को थोडा ढीला रखीए। 

4-2-ह्रौं अथवा दूं अथवा रं शिवजी का बीजाक्षर है। इस का उच्चारण मणिपुर चक्र में करना चाहिए। मणिपुर चक्र अग्नि तत्व का प्रतीक है! ह्रौं अथवा दूं अथवा रं का उच्चारण से ज्ञानशक्ति का वृद्धि होगा। आत्मनिग्रहशक्ति बढ़ेगी और अकालमरण प्राप्ति नहीं होगा।डायबिटीज (diabetes) और उदर संबधित व्याधियों से उपशमन मिलेगा। मोक्ष का मार्ग मिलेगा।आरोग्य, अंगों में बल, सभी तरह का सफलता, व्यापार और वृत्ति में वृद्धि मिलेगा। शोक निर्मूलन, और नकारात्मक शक्तियों से रक्षण लभ्य होता है ।सुंदर और अनुकूलवती भार्या का प्राप्ति, और सुख दांपत्य जीवन लभ्य होगा।     

5-ह्रीं अथवा ऐं अथवा यं

5-1-सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए। अब तर्जनी अंगुली के आग्रभाग को अंगुष्ठ के मूलभाग से दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। इसप्रकार वायुमुद्रा में बैठना है। कूटस्थ मे दृष्टि रखे। मन का  ध्यान अनाहत चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए। पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए।  शरीर को थोडा ढीला रखीए। 

5-2-ह्रीं अथवा ऐं अथवा यं महामाया यानी भुवनेश्वरी का बीजाक्षर है। इस का उच्चारण अनाहत चक्र में करना चाहिए ।अनाहत चक्र वायुतत्व का प्रतीक है । ह्रीं अथवा ऐं अथवा यं का उच्चारण से बीजशक्ति का वृद्धि होगा। प्राणशक्ति नियंत्रण का वृद्धि होगा। वायु संबंधित(gastric disturbances) व्याधियों से उपशमन मिलेगा।

5-3-अकालमरण नहीं होगा ; मोक्ष का मार्ग सुगम बनेगा। आरोग्य,  सभी तरह की सफलता, व्यापार और वृत्ति में वृद्धि मिलेगा। शोक निर्मूलन, और नकारात्मक शक्तियों से रक्षण लभ्य होता है। अनुकूलवती भार्या की प्राप्ति, सुखमय दांपत्य जीवन  ,सुसंतान लभ्य होगा और समाज (recognition in society) में ख्याति मिलेगा। 

6-गं अथवा फ्रौं अथवा हं

6-1-सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए।अब मध्यमा अंगुली के आग्रभाग को अंगुष्ठ के मूलभाग से दबाए। शेष अंगुलिया सीधी रखें। इस प्रकार आकाश व शून्य मुद्रा में बैठना है। कूटस्थ मे दृष्टि रखे। मन का  ध्यान विशुद्ध चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए। पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए। शरीर को थोडा ढीला रखीए। 

6-1-गं अथवा फ्रौं अथवा हं गणपति, कुण्डलिनी, और हनुमान का बीजाक्षर है! इस का उच्चारण विशुद्ध चक्र में करना चाहिए। विशुद्ध चक्र आकाश तत्व का प्रतीक है।गं अथवा फ्रौं अथवाहं का उच्चारण से आदिशक्ति की कृपा  प्राप्ति होती है। रुद्रग्रंथी का विच्छेदन होगा ।शुद्ध ज्ञान, रक्षण, ऐश्वर्य, सुख, सौभाग्य, आरोग्य, समस्त हृदय बाधाओं से उपशमन, और नकारात्मक शक्तियों से रक्षण लभ्य होता है। 
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7-दं अथवा ॐ

7-1-सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए! तर्जनी अंगुली के आग्रभाग को अंगुष्ठ के आग्रभाग से दबाए। इसी को ज्ञानमुद्रा कहते है। कूटस्थ मे दृष्टि रखे ।मन का  ध्यान आज्ञाचक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए ।  पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए ।शरीर को थोडा ढीला रखीए। 

7-2-दं अथवा ॐ विष्णु का बीजाक्षर है।इस का उच्चारण आज्ञा चक्र में यानी कूटस्थ में करना चाहिए। आज्ञा चक्र कृष्ण चैतन्य का प्रतीक है। दम अथवा ॐ का उच्चारण से पराशक्ति का प्राप्ति होगा। शुद्ध ज्ञान, रक्षण, ऐश्वर्य, सुख, सौभाग्य, आरोग्य, समस्त हृदय बाधों से उपशमन, और नकारात्मक शक्तियों से रक्षण लभ्य होता है। 

8-क्ष्रौं अथवा रां

8-1-सीधा वज्रासन, पद्मासन अथवा सुखासन मे सहजमुद्रा व ज्ञानमुद्रा लगाके बैठिए। इसी को ज्ञानमुद्रा कहते है। सहस्रार मे दृष्टि रखे। मन का  ध्यान सहस्रार चक्र मे रखिए और उस चक्र मे तनाव डालिए।पूरब दिशा अथवा उत्तर दिशा की और मुँह करके बैठिए।शरीर को थोडा ढीला रखीए। 

8-2-क्ष्रौं अथवा राम् विष्णु का बीजाक्षर है।इसका उच्चारण सहस्रार चक्र में करना चाहिए। सहस्रार चक्र परमात्मा चैतन्य का प्रतीक है। क्ष्रौं अथवा राम् का उच्चारण से विष्णु ग्रंथी का विच्छेदन होता है। साधक स्वयम् ही भगवान बन जाता है। 
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👉 #मंत्रशक्ति_और_पंचतत्वों_का_संतुलन_मंत्र

1-हमारा शरीर पंच तत्वों से निर्मित है और इन पांचो तत्वों के अलग-अलग कारक देवता माने गए हैं। यह पांचों तत्व और उनके देवता इस प्रकार हैं, जानिए...

1-1-श्री गणेश- जल तत्व हैं।

1-2-श्री विष्णु- पृथ्वी तत्व हैं।

1-3-श्री शंकर-आकाश तत्व हैं।

1-4-श्री देवी - अग्रि तत्व हैं।

1-5-श्री सूर्य- वायु तत्व हैं।

2-जीवन के लिए सर्वप्रथम जल की आवश्यकता होती है। इसलिए प्रथम पूज्य गणेश जल के अधिष्ठात्र देवता है। आकाश साक्षात विष्णु देवता से संबधित तत्व है। शंकर पृथ्वी तत्व, देवी अग्नि तत्व तथा सूर्य वायु तत्व के देवता है। इस प्रकार इन पांचों का पूजन कर हम अपने आप का की पूजन करते हैं। ऐसा माना जाता है।

 3-हर रोग के मूल में पाँच तत्त्व यानी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की ही विकृति होती है। मंत्रों के द्वारा इन विकृतियों को आसानी से दूर करके रोग मिटा सकते हैं।हर रोग के मूल में पाँच तत्त्व यानी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की ही विकृति होती है। मंत्रों के द्वारा इन विकृतियों को आसानी से दूर करके रोग मिटा सकते हैं।हर रोग के मूल में पाँच तत्त्व यानी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की ही विकृति होती है। मंत्रों के द्वारा इन विकृतियों को आसानी से दूर करके रोग मिटा सकते हैं

 4-पंच तत्वों के द्वारा इस समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है। मनुष्य का शरीर भी पाँच तत्वों से ही बना हुआ है। इन तत्वों का जब तक शरीर में उचित भाग रहता है तब तक स्वस्थता रहती है। जब कमी आने लगती है तो शरीर निर्बल, निस्तेज, आलसी, अशक्त तथा रोगी रहने लगता है। स्वास्थ्य को कायम रखने के लिए यह आवश्यक है कि तत्वों को उचित मात्रा में शरीर में रखने का हम निरंतर प्रयत्न करते रहें और जो कमी आवे उसे पूरा करते रहें। 
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👉 #पंचतत्वों_के_मंत्र

 👉 1-पृथ्वीतत्त्व

1-पृथ्वीतत्त्व ,जिसका बीज मंत्र लं है, ध्यान करना चाहिए। इसके द्वारा शरीर को इच्छानुसार हल्का और छोटा करने की सिद्धि प्राप्त हो जाती है।इस तत्त्व का स्थान मूलाधार चक्र में है। शरीर में पीलिया, कमलवायु आदि रोग इसी तत्त्व की विकृति से होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है।
2-विधिः पृथ्वी तत्त्व के विकारों को शांत करने के लिए 'लं' बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए किसी पीले रंग की चौकोर वस्तु का ध्यान करें।
3-लाभः इससे थकान मिटती है। शरीर में हल्कापन आता है। उपरोक्त रोग, पीलिया आदि शारीरिक व्याधि एवं भय, शोक, चिन्ता आदि मानसिक विकार ठीक होते हैं।

👉 2-जल-तत्त्व 
 
 1-अर्धचन्द्राकार चन्द्र-प्रभा वर्णवाले जल-तत्त्व का, जिसका बीज मंत्र वं है, ध्यान करना चाहिए। इससे भूख-प्यास आदि को सहन करने   की  क्षमता 
प्राप्त  होती है।स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्त्व का स्थान है। कटु, अम्ल, तिक्त, मधुर आदि सभी रसों का स्वाद इसी तत्त्व के कारण आता है। असहनशीलता, 
मोहादि विकार इसी तत्त्व की विकृति से होते हैं।
2-विधिः 'वं' बीजमंत्र का उच्चारण करने से भूख-प्यास मिटती है व सहनशक्ति उत्पन्न होती है। कुछ दिन यह अभ्यास करने से जल में डूबने का भय भी समाप्त हो जाता है। 
3-लाभः कई बार 'झूठी' नामक रोग हो जाता है जिसके कारण पेट भरा रहने पर भी भूख सताती रहती है। ऐसा होने पर भी यह प्रयोग लाभदायक हैं। साधक यह प्रयोग करे जिससे कि साधना काल में भूख-प्यास साधना से विचलित न करे।

👉 3-अग्नि तत्त्व 

 1-त्रिकोण आकार और लाल (सूर्य के समान) वर्ण वाले अग्नि-तत्त्व का ध्यान करना चाहिए। इसका बीज मंत्र रं है। इससे बहुत अधिक भोजन पचाने और सूर्य तथा अग्नि के प्रचंड ताप को सहन करने की क्षमता प्राप्त होती है।मणिपुर चक्र में अग्नितत्त्व का निवास है। क्रोधादि मानसिक विकार, मंदाग्नि, अजीर्ण व सूजन आदि शारीरिक विकार इस तत्त्व की गड़बड़ी से होते हैं।
2-विधिः आसन पर बैठकर 'रं' बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए अग्नि के समान लाल प्रभावाली त्रिकोणाकार वस्तु का ध्यान करें।
3-लाभः इस प्रयोग से मंदाग्नि, अजीर्ण आदि विकार दूर होकर भूख खुलकर लगती है व धूप तथा अग्नि का भय मिट जाता है। इससे कुण्डलिनी शक्ति के जागृत होने में सहायता मिलती है।

👉 4- वायु तत्त्व 

1-वृत्ताकार श्याम-वर्ण (कहीं-कहीं गहरे नीले रंग का उल्लेख) की आभावाले वायु-तत्त्व का ध्यान करना चाहिए। इसका बीज-मंत्र यं है। इसका ध्यान करने से आकाश में पक्षियों के समान उड़ने की क्षमता या सिद्धि प्राप्त होती है।यह तत्व अनाहत चक्र में स्थित है। वात, दमा आदि रोग इसी की विकृति से होते हैं।
2-विधिः आसन पर बैठकर 'यं' बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए हरे रंग की गोलाकार वस्तु (गेंद जैसी वस्तु) का ध्यान करें।
3-लाभः इससे वात, दमा आदि रोगों का नाश होता है व विधिवत् दीर्घकाल के अभ्यास से आकाशगमन की सिद्धि प्राप्त होती है।

 👉 5-आकाश तत्त्व 

1-निराकार आलोकमय आकाश तत्त्व का हं सहित ध्यान करना चाहिए। ऐसा करने से साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है और उसे अणिमा आदि अष्ट-सिद्धियों का ऐश्वर्य प्राप्त होता है।इसका स्थान विशुद्ध चक्र में है।
2-विधिः आसन पर बैठकर 'हं' बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए नीले रंग के आकाश का ध्यान करें।
3-लाभः इस प्रयोग से बहरापन जैसे कान के रोगों में लाभ होता है। दीर्घकाल के अभ्यास से तीनों कालों का ज्ञान होता है तथा अणिमादि अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
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👉 मंत्र की प्रचण्ड शक्ति और उसके प्रयोग का रहस्य

1- मन्त्र शक्ति से कितने ही प्रकार के चमत्कार एवं वरदान उपलब्ध हो सकते हैं यह सत्य है, पर उसके साथ ही यह तथ्य भी जुड़ा हुआ है कि वह मन्त्र उपरोक्त चार परीक्षाओं की अग्नि में उत्तीर्ण हुआ होना चाहिए। प्रयोग करने से पूर्व उसे सिद्ध करना पड़ता है। सिद्धि के लिए साधना आवश्यक है। इस साधना के चार चरण हैं...

1-1-शब्द शक्ति ;-

मन्त्र का  आधार है शब्द शक्ति। अमुक अक्षरों का एक विशिष्ट क्रम से किया गया गुन्थन शब्द−शास्त्र के गूढ़ सिद्धान्तों पर तत्वदर्शी अध्यात्मवेत्ताओं ने किया होता है। मन्त्रों के अर्थ सरल और सामान्य हैं। अर्थों में दिव्य जीवन की शिक्षाएँ और दिशाएँ पाई जाती हैं। उन्हें समझना भी उचित ही है। पर मन्त्र की शक्ति इन शिक्षाओं में नहीं उनकी शब्द रचना से जुड़ी हुई है। वाह्य यन्त्रों को अमुक क्रम से बजाने पर ध्वनि प्रवाह निसृत होता है। कण्ठ को अमुक आरोह−अवरोहों के अनुरूप उतार−चढ़ाव के स्वरों से युक्त करके जो ध्वनि प्रवाह बनता है उसे गायन कहते हैं। ठीक इसी प्रकार मुख के उच्चारण मन्त्र को अमुक शब्द क्रम के अनुसार बार−बार लगातार संचालन करने से जो विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह संचारित करने से जो विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह संचारित होता है वही मन्त्र की भौतिक क्षमता है।

1-2-मानसिक एकाग्रता;-

मन की एकाग्रता अध्यात्म क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है उसके संपादन के लिए अमुक साधनों का विधान तो है, पर उनकी सफलता मन को चंचल बनाने वाली दुष्प्रवृत्तियों का अवरोध करने के साथ जुड़ी हुई है। जिसने मन को संयत समाहित करने की आवश्यकता पूर्ण कर सकने योग्य अन्तःस्थिति का परिष्कृत दृष्टिकोण के आधार पर निर्माण किया होगा वही सच्ची और गहरी एकाग्रता का लाभ उठा सकेगा। ध्यान उसी का ठीक तरह जमेगा और तन्मयता के आधार पर उत्पन्न होने वाली दिव्य क्षमताओं से लाभान्वित होने का अवसर उसी को मिलेगा।

1-3-चारित्रिक श्रेष्ठता;-

मन्त्र साधक को यम−नियमों का अनुशासन पालन करते हुए चारित्रिक श्रेष्ठता का अभिवर्धन करना चाहिए। क्रूरकर्मी, दुष्ट−दुराचारी व्यक्ति किसी भी मन्त्र को सिद्ध नहीं कर सकते। तान्त्रिक शक्तियाँ भी ब्रह्मचर्य आदि की अपेक्षा करती हैं। फिर देव शक्तियों का अवतरण जिस भूमि पर होना है उसे विचारणा, भावना और क्रिया की दृष्टि से सतोगुणी पवित्रता से युक्त होना ही चाहिए।

1-4-अभीष्ट लक्ष्य में अटूट श्रद्धा;-

अभीष्ट लक्ष्य में श्रद्धा जितनी गहरी होगी उतना ही मन्त्र बल प्रचण्ड होता चला जायगा। श्रद्धा अपने आप में एक प्रचण्ड चेतन शक्ति है। विश्वासों के आधार पर ही आकाँक्षाएँ उत्पन्न होती हैं और मनःसंस्थान का स्वरूप विनिर्मित होता है। बहुत कुछ काम तो मस्तिष्क को ही करना पड़ता है। शरीर का संचालन भी मस्तिष्क ही करता है। इस मस्तिष्क को दिशा देने का काम अन्तःकरण के मर्मस्थल में जमे हुए श्रद्धा, विश्वास को है।

वस्तुतः व्यक्तित्व का असली प्रेरणा केन्द्र इसी निष्ठा की धुरी पर घूमता है।श्रद्धा ही व्यक्तित्व है इस श्रद्धा को इष्ट लक्ष्य में ...साधना की यथार्थता और उपलब्धि में जितनी अधिक गहराई के साथ—तन्मयता के साथ—नियोजित किया गया होगा, मन्त्र उतना ही सामर्थ्यवान बनेगा। माँत्रिक को चमत्कारी शक्ति उसी अनुपात से प्रचण्ड होगी। इन तीनों चेतनात्मक आधारों को महत्व देते हुए जिसने मन्त्रानुष्ठान किया होगा निश्चित रूप से वह अपने प्रयोजन में पूर्णतया सफल होकर रहेगा।
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👉 शब्द शक्ति का क्या महत्व है?

1-मुख से उच्चारित मन्त्राक्षर सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करते हैं। उसमें सन्निहित तीन ग्रन्थियों, षटचक्रों—षोडश मातृकाओ —चौबीस उपत्यिकाओं एवं चौरासी नाड़ियों को झंकृत करने में मन्त्र का उच्चारण क्रम बहुत काम करता है। दिव्य शक्ति के प्रादुर्भूत होने से यह शब्दोच्चार भी एक बहुत बड़ा कारण एवं माध्यम है।

2-मन्त्र विद्या में मुख से हलके प्रवाह क्रम से ही शब्दों का उच्चारण होता है, पर उनके बार−बार लगातार दुहराये जाने से सूक्ष्म शरीर के शक्ति संस्थानों का ध्वनि प्रवाह बहने लगता है। वहाँ से अश्रव्य कर्णातीत ध्वनियाँ या प्रचंड प्रवाह प्रादुर्भूत होता है। इसी में मन्त्र साधक का व्यक्तित्व ढलता है और उन्हीं के आधार पर वह अभीष्ट वातावरण बनता है जिसके लिए मन्त्र साधना की गई मन्त्र का जितना महत्व है ।साधना विधान का जितना महात्म्य है उतना ही आवश्यक यह भी है कि याँत्रिक अपनी श्रद्धा, तन्मयता और विधि प्रक्रिया में निष्ठावान रहकर अपना व्यक्तित्व इस योग्य बनाये कि उसका मन्त्र प्रयोग सही निशाना साधने वाली बहुमूल्य बन्दूक का काम कर सके।

 3-शब्द शक्ति का महत्व विज्ञानानुमोदित है। स्थूल, श्रव्य, शब्द भी बड़ा काम करते हैं फिर सूक्ष्म कर्णातीत अश्रव्य ध्वनियों का महत्व तो और भी अधिक है। मन्त्र जप में उच्चारण तो धीमा ही होता है उससे अतीन्द्रिय शब्द शक्ति को ही प्रचंड परिणाम में उत्पन्न किया जाता है।
ध्वनि तरंगें पिछले दिनों उच्चारण से उद्भूत होकर श्रवण की परिधि में ही सीमित रहती थीं। प्राणियों द्वारा शब्दोच्चारों एवं वस्तुओं से उत्पन्न आघातों से अगणित प्रकार की ध्वनियाँ निकलती है उन्हें हमारे कान सुनते हैं। सुनकर कई तरह के ज्ञान प्राप्त करते हैं ...निष्कर्ष निकालते हैं और अनुभव बढ़ाते हुए उपयोगी कदम उठाते हैं। यह शब्द का साधारण उपयोग हुआ।

4-विज्ञान ने ध्वनि तरंगों में सन्निहित असाधारण शक्ति को समझा है और उनके द्वारा विभिन्न प्रकार के क्रिया−कलापों को पूरा करना अथवा लाभ उठाना आरम्भ किया है। वस्तुओं की मोटाई नापने ...धातुओं के गुण, दोष परखने का काम अब ध्वनि तरंगें ही प्रधान रूप में पूरा करती है।ध्वनि तरंगें कम्पन होती हैं, वे रेडियो तरंगों की तरह शून्य में यात्रा नहीं करती। मनुष्य के कानों द्वारा सुनी जा सकने योग्य थोड़ी सी ही हैं। जो कानों की पकड़ से नीची या ऊँची हैं उनकी संख्या कितनी गुनी अधिक है।

5-शब्द को शक्ति के रूप में परिणित करने के लिए जिन ध्वनि तरंगों का प्रयोग किया जा रहा है उन्हें अल्ट्रा सोनिक और सुपर सोनिक  संज्ञाएँ दी जाती हैं। यह ध्वनियाँ निकट भविष्य में सरलतापूर्वक विद्युत शक्ति में परिणत की जा सकेगी और तब उस शब्द स्रोत का ध्वनि प्रवाह का उपयोग किया जा सकेगा ऐसा वैज्ञानिक मानते हैं।

6-यह ध्वनि तरंगें देखने, सुनने, समझने में नगण्य सी हैं—उनका छोटा अस्तित्व उपहासास्पद सा लगता है, पर जब उनमें सन्निहित प्रचंड शक्ति का आभास मिलता है तो आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। यह ध्वनि तरंगें इतना बड़ा काम करती हैं जितना विशालकाय एवं शक्ति शाली संयंत्र भी नहीं कर सकते। यन्त्र विज्ञान द्वारा इसी सूक्ष्म शक्ति का प्रयोग किया जाता है। रेडियो तरंगें, शब्द तरंगें, माइक्रो लहरें, टेलीविजन और रैडार की तरंगें, एक्स किरणें, गामा किरणें, लेसर किरणें, मृत्यु किरणें, अल्ट्रा वायलेट तरंगें आदि कितनी ही शक्ति धाराएँ इस निखिल ब्रह्माण्ड में निरन्तर प्रवाहित रहती है। इन तरंगों की भिन्नता उनकी लम्बाई के आधार पर नापी जाती है। मीटर, सेन्टीमीटर, माइक्रोन, मिली मीटर, आँगस्ट्रोन इनके मापक पैमाने हैं।यह ध्वनि तरंगें अब विभिन्न भौतिक प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त की जाने लगी हैं और उनके अनेकों उपयोगी लाभ उठाये जा रहे हैं।

7-शब्द केवल जानकारी ही नहीं और भी बहुत कुछ देता है। खाद और पानी के बाद अब पौधों के लिए मधुर ध्वनि प्रवाह भी एक उपयोगी खुराक मानी जाने लगी है।शब्द शक्ति को ताप में परिणित किया जा सकता है। शब्द जब मस्तिष्क के ज्ञानकोषों से टकराते हैं तो हमें कई प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। यदि उन्हें पकड़ कर ऊर्जा में परिणित किया जाय तो वे बिजली ताप प्रकाश चुम्बकत्व के रूप में कितने ही प्रकार का क्रिया−कलाप सम्पन्न कर सकने योग्य बन सकते हैं।ताप को शक्ति का प्रतीक माना गया है। विभिन्न प्रकार के

ईधन जलाकर अनेकों शक्ति धाराएँ उत्पन्न की जाती हैं। शक्ति और ताप को अब एक ही मान लिया गया है। इस शृंखला में ध्वनि को भी एक शक्ति उत्पादक ईधन मान लिया गया है। वह दिन दूर नहीं जब शब्द को ईधन नहीं वरन् एक स्वतन्त्र एवं सर्व समर्थ शक्ति माना जायगा। तभी मन्त्र शक्ति की यथार्थता ठीक तरह समझी जा सकेगी।
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8-ध्वनियाँ तीन प्रकार से उत्पन्न होती हैं ..

(1)वायु द्वारा

(2) जल द्वारा

(3)पृथ्वी द्वारा  

9-वायु की तरंगों द्वारा प्राप्त होने वाली ध्वनि की गति प्रति सेकेंड 1088 फुट होती है। जल तरंगों की गति इससे तेज होती है। उस माध्यम से वे एक सेकेंड में 4900 फुट चलती है। पृथ्वी के माध्यम से यह गति और भी तेज होती है अर्थात् एक सेकेंड में 16400 फुट।
प्राणायाम द्वारा वायु तत्व का ;स्नान, आचमन, अर्घदान आदि द्वारा जल का ;दीपक, धूपबत्ती, हवन आदि द्वारा अग्नि का प्रयोग करके मन्त्रानुष्ठान से वे त्रिविध उपचार किये जाते हैं जिनसे शब्द शक्ति को प्रचंड बनने का अवसर मिल सके।

10-हर ध्वनि अपने ढंग से अलग−अलग कंपन उत्पन्न करती है। इसी आधार पर हमारे कानों के पर्दे अलग−अलग व्यक्तियों की आवाज को आँखें बन्द होने पर भी पहचान लेते हैं। ध्वनि कम्पनों−ध्वनि तरंगों के घनत्व के आधार पर हम असंख्य प्रकार की ध्वनियों की भिन्नता अनुभव करते हैं। अन्धे लोगों को अपने कानों की सहायता से ही समीपवर्ती वातावरण में हो रही हलचलों का—व्यक्तियों तथा प्राणियों के अस्तित्व का पता लगाना पड़ता है। कान इस बात के अभ्यस्त हो जाते हैं कि विभिन्न माध्यमों से उत्पन्न होने वाले ध्वनि प्रवाह का अन्तर कर सकें और स्थिति का अथवा प्राणियों की हलचलों का पता लगा सकें।

👉 ध्वनि का विज्ञान

1-नादयोग की साधना द्वारा अनन्त अन्तरिक्ष में निरन्तर बहने वाली ध्वनि तरंगों को सुना जाता है और उनमें से अपने काम की तरंगों के साथ संपर्क बनाकर भूतकाल में जो हो चुका है उसकी ...भविष्य के लिए जो सम्भावना बन रही है उसकी ...तथा वर्तमान में किस व्यक्ति या किस परिस्थिति द्वारा क्या हलचलें उत्पन्न की जा रही हैं उनका पता लगाया जा सकता है। नादयोग की शब्द साधना वस्तुतः मन्त्र विज्ञान का ही एक अंग है।

 2-जिन ध्वनियों के कम्पन प्रति सेकेंड 100 से 300 तक होते हैं वे मनुष्य के कानों से आसानी के साथ सुने जा सकते हैं। इससे बहुत अधिक या बहुत कम कम्पन वाले शब्द आकाश में घूमते हुए भी हमारे कानों द्वारा सुने समझे नहीं जाते। इस प्रकार के शब्द प्रवाह को ‘अनसुनी ध्वनियाँ’ कहते हैं। उन्हें ‘सुपर सोनिक रेडियो मीटर’ नामक यन्त्र से कान द्वारा सुना जा सकता है।कान से लेकर मस्तिष्क तक स्वसंचालित तंत्रिकाओं का जाल बिछा है। शब्द के कम्पन इनसे टकराकर प्रतिध्वनि उत्पन्न करते हैं, वह मस्तिष्क में पहुँचती है तब सुनने की बात पूरी होती है। कान में आवाज के घुसने और मस्तिष्क को उसका बोध होने के बीच लगभग एक सेकेंड समय लग जाता है।

3-मुँह बन्द करके गुनगुनाया जाय तो भी उसकी आवाज मस्तिष्क तक पहुँचती है। ऐसी दशा में कान के समीप वाली जबड़े की हड्डी उन शब्दों को सीधे मुँह से मस्तिष्क तक पहुँचा देती है। इससे स्पष्ट है कि कान का कार्य क्षेत्र एक इञ्च गहरी नली तक ही सीमित नहीं है वरन् जबड़े के इर्द−गिर्द तक फैला है। गाल पर चपत मारने से कान सुन्न हो जाते हैं। इसका कारण उस क्षेत्र की उग्र हलचल का कान पर प्रभाव पड़ना ही है।

4-कान में प्रवेश करने वाली ध्वनि तरंगों का वर्गीकरण करके उन्हें छने हुए रूप में मस्तिष्क तक पहुँचाने का काम ‘यूस्टोयिओ’ नली सम्पन्न करती है। शोरगुल के बीच जब यह नली थक जाती है तो अक्सर बहरापन सा लगने लगता है। इसी तरह की आन्तरिक थकान को दूर करने के लिए जमुहाइयां आती है।

5-श्रवण शक्ति का बहुत कुछ सम्बन्ध मन की एकाग्रता से है। यदि किसी बात में दिलचस्पी कम हो तो पास में ही बहुत कुछ बकझक होते रहने पर  कुछ सुनाइ नहीं पड़ेगा। किन्तु यदि दिलचस्पी की बात हो तो फुसफुसाहट से भी मतलब की बातें आसानी से सुनी समझी जा सकती हैं।

6-मनुष्य के कान केवल उन्हीं ध्वनि तरंगों को अनुभव कर सकते हैं जिनकी संख्या प्रति सेकेंड 20 से लेकर 20 सहस्र तक की होती है। इससे कम और अधिक संख्या वाले ध्वनि प्रवाह होते

तो हैं, पर वे मनुष्य की कर्णेन्द्रिय द्वारा नहीं सुने जा सके।इस तथ्य को समझने पर मानसिक जप का महत्व समझ में आता है। उच्चारण आवश्यक नहीं। मानसिक शक्ति का प्रयोग करके ..ध्यान भूमिका में सूक्ष्म जिह्वा द्वारा मन ही मन जो जप किया जाता है उसमें भी ध्वनि तरंगें भली प्रकार उठती रहती हैं।
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7-नाक में जिस स्तर की गन्ध ग्राही शक्ति है उस स्तर की पकड़ कर सकने वाला यन्त्र अभी

तक बनाया नहीं जा सका।नादयोग द्वारा आकाश−व्यापी, अन्तर्ग्रही तथा अन्तःक्षेत्रीय दिव्य शक्तियों का सुना जाना सम्भव है और उस आधार पर वैसा बहुत कुछ जाना जा सकता है जो स्थूल मस्तिष्कीय चेतना अथवा उपलब्ध साधनों से जान सकना सम्भव नहीं है। विश्व−व्यापी शब्द समुद्र में मन्त्र साधक अपनी प्रचंड हलचलें समाविष्ट करता है और ऐसे शक्तिशाली ज्वार−भाटे उत्पन्न करता है जिनके आधार पर अभीष्ट परिस्थितियाँ विनिर्मित हो सके। यही है मन्त्र विद्या के चमत्कारी क्रिया−कलाप का रहस्य।

नोंध

लोग उथली एकाँगी मन्त्र साधना करते हैं फलतः वे उस सत्परिणाम से वंचित रह जाते हैं जो सर्वांगपूर्ण मन्त्र साधना करने से निश्चयपूर्वक प्राप्त हो सकता है। ध्यान रखा जाय मन्त्र विद्या की सफलता के चार आधार हैं—शब्द शक्ति, मानसिक एकाग्रता, चारित्रिक श्रेष्ठता एवं लक्ष्य के प्रति अटूट श्रद्धा। चारों आधारों को साथ लेकर चलने वाली मन्त्र साधना कभी निष्फल नहीं होती।
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💯✔ #क्या_है_ब्रह्म_मंत्र ?
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1-"परब्रह्म" का शाब्दिक अर्थ है 'सर्वोच्च ब्रह्म' - वह ब्रह्म जो सभी वर्णनों और संकल्पनाओं से भी परे है। अद्वैत वेदान्त का निर्गुण ब्रह्म भी परब्रह्म है। वैष्णव और शैव सम्प्रदायों में भी क्रमशः विष्णु तथा शिव को परब्रह्म माना गया है।समस्त जगत ब्रह्म के अंतर्गत माना गया है ।वेद, शास्त्र मंत्र, तन्त्र, आधुनिक विज्ञान, ज्योतिष आदि किसी भी माध्यम से उसकी परिभाषा नहीं हो सकती! वह गुणातीत, भावातीत, माया, प्रक्रति और ब्रह्म से परे और परम है।

2-वह एक ही है दो या अनेक नहीं है।ब्रह्म से भी परे एक सत्ता है जिसे वाणी के द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। वेदों में उसे नेति -नेति (ऐसा भी नहीं -ऐसा भी नही) कहा है। वह सनातन है, सर्वव्यापक है, सत्य है, परम है। वह समस्त जीव निर्जीव समस्त अस्तित्व का एकमात्र परम कारण सर्वसमर्थ सर्वज्ञानी है। वह वाणी और बुद्धि का विषय नहीं है उपनिषदों ने कहा है कि समस्त जगत ब्रह्म पर टिका हे और ब्रह्म परब्रह्म पर टिका है।ओंकार परब्रह्म है।
हम जिस ब्रह्माण्ड में रहते है उसमे ओ३म् (ॐ) सर्वव्यापी है अर्थात सभी जगह व्याप्त है |ओ३म् (ॐ) के बिना इस संसार कि कल्पना भी नहीं कि जा सकती है |
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3-ओ३म् किसी भी एक देव का नाम या संकेत नहीं है, अपितु हर धर्म को मानने वालों ने इसे अपने तरीके से प्रचलित किया है | जैसे ब्रह्मा-वाद में विश्वास रखने वाले इसे ब्रह्मा, विष्णु के सम्प्रदाय वाले वैष्णवजन इसे विष्णु तथा शैव या रुद्रानुगामी इसे शिव का प्रतीक मानते है और इसी तरीके से इसको प्रचलित करते है | परन्तु वास्तव में ओ३म् तीनों देवो का मिश्रित तत्त्व

है|  ओ३म् (ॐ) शब्द में "अ" ब्रह्मा का पर्याय है, और इसके उच्चारण द्वारा हृदय में उसके त्याग का भाव होता है। "उ" विष्णु का पर्याय है, इसके उच्चारण द्वारा त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का पर्याय है और इसके उच्चारण द्वारा त्याग तालुमध्य में होता है। इन तीनो देवों (त्रिदेवों) के संगम से यह ओ३म् (ॐ) बना है |
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ऋषि: श्री सदाशिव ऋषि:
छंद : अनुष्टुप
देवता: निर्गुण ब्रह्म:
शक्ति : विधि/विधाता,
बीजं : ऐं ह्रींश्रीं क्लीं सौः......

मंत्र का विनियोग ;--

ओंकार मंत्र का छंद गायत्री है, इसके देवता परमात्मा स्वयं है और मंत्र के ऋषि भी ईश्वर ही हैं...
ॐ अस्य ब्रह्म मंत्रस्य सदाशिवाय ऋषये नमः शिरसि ॥(सिर में ),
अनुष्टुप छंदये नमः मुखे (मुख में ) ॥

सर्वान्तयामी निर्गुण परब्रह्मण्ये देवताये नमःह्रदि (ह्रदय में )

मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: //धर्म,अर्थे, काम,मोक्ष प्राप्तयर्थे  विनियोग सर्वांगे |
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 #विनियोग/#ऋष्यादिन्यास

1-ऋष्यादिन्यास में मन्त्र के ऋषि, छन्दस्, देवता, बीज, शक्ति, तथा कीलक नामक छह अंग होते है।इनमे से प्रत्येक के साथ चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग करते हुये क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुं, वौषट् तथा फट् पदों के साथ सिर, मुख, ह्रदय, गुदा, चरण तथा नाभि में न्यास किया जाता है।जैसे ,

2-उदाहरण के लिए भगवती दुर्गा के महामन्त्र "ॐ ह्रीं दुं दुर्गायै नमः" के ऋषि नारद, छन्दस् गायत्री, देवता दुर्गा, बीज दुं तथा शक्ति ह्रीं है। इस मन्त्र की साधना में ऋष्यादिन्यास निम्न प्रकार से किये जाने का विधान है--नारदाय ऋषये नमः (सिर में ),गायत्री छन्दसे नमः (मुख में ),दुर्गा देवतायै नमः (ह्रदय में ),दुं बीजाय नमः (गुह्यांग में ),ह्रीँ शक्तये नमः (चरणों में ),

 3-जब इन शब्द का उच्चारण करते हैं तब इनका अर्थ या भावभूमि होती हैं ।उदाहरण के लिए....
3-1-ऋषि --इसका उच्चारण करते समय सिर के उपरी के भाग में इनकी अवस्था मानी जाती हैं। 
3-2-छंद ------- गर्दन में 
3-3-देवता ----- ह्रदय में
3-4-कीलक ---- नाभि स्थान पर
3-5-बीजं ------ कामिन्द्रिय स्थान पर
3-6-शक्ति --- पैरों में (निचले हिस्से पर)
3-7-उत्कीलन--- हांथो में
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 4-ऋषि, छन्द,देवता का विन्यास किए विना,जो मन्त्र-जप किया जाता है,उसका फल तुच्छ यानी न्यून हो जाता है। अतः साधना का पूर्ण फल प्राप्त करने के लिए न्यास द्वारा इनसे तादात्म्य स्थापित करना परमावश्यक है। हम पाते हैं कि प्रायः मन्त्र या स्तोत्र के विनियोग में ही इन बातों की चर्चा रहती है,यानी जिस मन्त्र का हम जप करने जा रहे हैं, अथवा स्तोत्र-पाठ करने जा रहे हैं,उसके ऋषि,छन्द और देवता कौन हैं- यह जानना-करना आवश्यक है। कहीं-कहीं और भी कुछ चर्चा जुड़ी रहती है,यथा- बीज,शक्ति,कीलक,और अभीष्ट फल। यानी कहीं मात्र तीन की,तो कहीं कुल सात बातों की चर्चा रहती है।
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1-#कर_न्यास
न्यास कई प्रकार के होते हैं परंतु मुख्यतः तीन प्रकार के न्यास बहुत जरुरी बताये गये हैं।कर न्यास अर्थात् हमारे हाथ का न्यास। हाथ कर्मों का प्रतीक है। हमें हाथों से शुभ कर्म करने चाहिए जिनसे सभी का कल्याण हो। कर न्यास में हाथों की अंगुलियां, अंगूठे और हथेली को दैवीय शक्ति से अभिमंत्रित करते हैं।वस्तुतः करन्यास और अंगन्यास दोनों इसके ही प्रभेद हैं। पहले दोनों हाथों की अंगुलियों का क्रमशः आपस में मन्त्र-पूरित-स्पर्श करते हैं। यथा—अंगूठा,तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठा। तत्पश्चात करतल और करपृष्ठ का स्पर्श किया जाता है।

2-प्रायः लोग यहां भ्रमित होते हैं कि ये स्पर्श कैसे हो,यानी दोनों हाथ अलग-अलग कार्य करें या कि एकत्र?वास्तव में,  अलग-अलग का कोई औचित्य नहीं है। सबका स्पर्श तो अंगूठे से कर लेंगे,किन्तु अंगूठे का स्पर्श कौन करेगा। वस्तुतः यह प्रश्न इस कारण उठता है क्योंकि अंगुलियों का रहस्य हमें ज्ञात नहीं होता।  ज्ञातव्य है पांच अंगुलियां क्रमशः— अंगूठा>अग्नि,तर्जनी >वायु,,मध्यमा>आकाश,अनामिका >पृथ्वी और कनिष्ठा> जल तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं।

3-इन पांचों का ही ऋण-धन क्रम से दाहिना-बायां,और ऊपर-नीचे(उर्ध्वांग-निम्नांग) हाथ-पैर के प्रशाखाओं के रुप में(सहयोग से) पंचतत्त्वों का नियन्त्रण होता है,और ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति—मानव-शरीर(पिण्ड) की सार्थकता सिद्ध होती है। ऋण-धन के आपस में वैधिक-मिलन से ही ऊर्जा प्रवाहित होती है। और यही तो करना है-न्यास में— ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का पिण्डीय ऊर्जा में अवतरण का प्रयास। ध्यातव्य है कि दायें हाथ के अँगूठे का स-मन्त्र बायें हाथ के अंगूठे से स्पर्श अनुभव-पूर्ण होना चाहिए। स्विच के नेगेटिव-पोजेटिव प्वॉयन्ट को  जोड़े और बत्ती न जले ...इसका मतलब है कि तार जोड़ने में कोई त्रुटि रह गयी है,यानी कि ठीक से जोड़ें।

4-और आगे, इसी भांति क्रमशः शेष चार अंगुलियों का,और फिर करतल और करपृष्ठों का एकत्र रुप में यही करन्यास कहलाया।उच्चारण और स्पर्श पूर्णतः अनुभूति पूर्ण हो,तभी न्यास सार्थक होता है।बिलकुल प्रारम्भ में सिर्फ अंगादि का स्पर्शानुभव ही पर्याप्त है,यानी अ-मन्त्र। बाद में इस क्रिया को स-मन्त्र करने का अभ्यास करे। करन्यास प्रायः सभी देवोपासना में समान ही है । उपासना का प्रधान अंग होते हुए भी,नये अभ्यासियों को इसे स्वतन्त्र रुप से भी करने का अभ्यास करना चाहिए, ताकि साधना काल में अनुभूति और गहन हो सके। 
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 उदाहरण;—

 4-1-ॐ  - अंगुष्ठाभ्यां नम:।

 4-2- सत्  - तर्जनीभ्यां नम:।

 4-3- चित्  - मध्यामाभ्यां नम:।

 4-4- एकम  - अनामिकाभ्यां नम:।

 4-5- ब्रह्म:    - कनिष्ठिकाभ्यां नम:।

 4-6-ॐ सत्- चित् -एकमब्रह्म:  -करतलकरपृष्ठाभ्यां फट् ।

कर न्यास करने का सही तरीका क्या हैं?

 1-करन्यास की प्रक्रिया को समझने से पहले हमें यह समझना होगा की हम भारतीय किस तरीके से नमस्कार करते हैं । इसमें हमारे दोनों हाँथ की हथेली आपस में जुडी रहती हैं।साथ  -साथ दोनों हांथो की हर अंगुली ,ठीक अपने कमांक की दुसरे हाँथ की अंगुली से जुडी होती हैं। ठीक इसी तरह से यह न्यास की प्रक्रिया भी....

 2-यहाँ पर हमें जो प्रक्रिया करना हैं वह कम से धीरे धीरे एक पूर्ण नमस्कार तक जाना हैं।   तात्पर्य ये हैं की जव् आप पहली लाइन के मन्त्र का उच्चारण करेंगे तब केबल दोनों हांथो के अंगूठे को आपस में जोड़ देंगेऔर जब तर्जनीभ्याम वाली लाइन का उच्चारण होगा तब दोनों हांथो की तर्जनी अंगुली को आपस में जोड़ ले।

3-यहाँ पर ध्यान रखे की अभी भी दोनों अंगूठे के अंतिम सिरे आपस में जुड़े ही रहेंगे , इसके बाद मध्यमाभ्यम वाली लाइन के दौरान हम दोनों हांथो की मध्यमा अंगुली को जोड़ दे। पर यहा भी पहले जुडी हुए अंगुली ..अभी भी जुडी ही रहेंगी. .. इसी तरह से आगे की लाइन के बारे में क्रमशः करते जाये ।और अंत में करतल कर वाली लाइन के समय एक हाँथ की हथेली की पृष्ठ भाग को दुसरे हाँथ से स्पर्श करे। और  फिर दूसरी हाँथ के लिए भी यही प्रक्रिया करे। 
ॐ अंगुष्ठ भ्याम नमः ---- दोनों अंगूठो के अंतिम सिरे को आपस में स्पर्श कराये । 
 सत् तर्जनी भ्याम नमः ---- दोनों तर्जनी अंगुली के अंतिम सिरे को आपस में मिलाये। (यहाँ पर अंगूठे मिले ही रहेंगे ),
 चित् मध्यमाभ्याम नमः --- दोनों मध्यमा अंगुली के अंतिम सिरे को आपस में मिलाये ।(यहाँ पर अंगूठे, तर्जनी मिले ही रहेंगे ),
 एकम-अनामिकाभ्याम नमः ----दोनों अनामिका अंगुली के अंतिम सिरे को आपस में मिलाये ।(यहाँ पर अंगूठे, तर्जनी, मध्यमा मिले हीरहेंगे ),
 ब्रह्म: कनिष्ठिकाभ्याम नमः ---दोनों कनिष्ठिका अंगुली के अंतिम सिरे को आपस में मिलाये ।(यहाँ पर अंगूठे, तर्जनी, मध्यमा, अनामिकामिले ही रहेंगे ),
 ॐ सत्- चित् -एकमब्रह्म:करतल करपृष्ठाभ्यां फट्  -- - दोनों हांथो की हथेली के पिछले भाग को दूसरी हथेली से स्पर्श करे।
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2-#अंग_न्यास

1-अंग न्यास से तात्पर्य है हमारा शरीर। अंग न्यास में नेत्र, सिर, नासिका, हाथ, हृदय, उदर, जांघ, पैर आदि अंगों में शक्तियां मानकर उनका आव्हान कर स्थापित किया जाता है।यह सभी शक्तियां हमारे कर्मो और विचारों को धर्म संगत कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।साथ ही हमारी सोच सकारात्मक बनती है।अगले चरण में पुनः हृदयादि अंगों का क्रमशः स्पर्श किया जाता है- तत्मन्त्रों के मानसिक उच्चारण पूर्वक।

2-किन्तु अंगन्यास में काफी भेद है ..छः से लेकर चौवन तक के क्रम मिलते हैं।अलग-अलग मन्त्रों, देवों,साधना-पद्धतियों में अंगादिन्यास का स्थान-वैभिन्य विविध रुप में व्यवहृत होता है।  किन्तु इन सब भेदों-प्रभेदों से अलग हट कर सर्वमान्य या  प्रारम्भिक हृदयादि न्यास का  क्रम यही है—

3-षडङ्गन्यास...ऊँ…हृदयाय नमः,ऊँ…शिरसे स्वाहा, ऊँ…शिखायै वषट्, ऊँ…कवचाय हुँ, ऊँ…नेत्रत्रयाय वौषट्(कहीं नेत्राभ्यां भी मिलता है), ऊँ… अस्त्राय फट्। इस सम्बन्ध में ज्ञानार्णवतन्त्रम् में कहा गया है ..अंगन्यास में विहित मन्त्र-पाद के साथ क्रमशः नमः, स्वाहा, वषट्, हुँ, वौषट् और फट् का प्रयोग किया जाना चाहिए।मन्त्र को शक्तिशाली बनानेवाली अन्तिम ध्वनियें में स्वाहा को स्त्रीलिंग; वषट्, फट्, स्वधा को स्वधा को नपुंसक लिंग माना है।कहीं-कहीं विशिष्ट निर्देश भी होते हैं कि करन्यास में भी अंगन्यास की तरह ही उक्त षट् पदों का प्रयोग किया जाय।षडङ्गन्यास के करने में इष्ट-मन्त्र-बीज को ही छः दीर्घस्वरों से युक्त करके,तत्तद् अंगों में प्रतिष्ठा करने की भावना की जाती है। 

4-उदाहरण;- ॐ -

1-ॐ - हृदयाय नम:।(नम:Successful completion of actions(sampannakaran)...) 

2- सत्-  शिरसे स्वाहा।(स्वाहा ..Destruction of harmful energy)

3- चित् - शिखायै वषट्।(वषट्..Controlling someone else’s mind)

4 -एकम - कवचाय हुम्।

5- ब्रह्म: - नेत्रत्रयाय वौषट्।(वौषट् ..to acquire power and wealth....)

6-ॐ सत्- चित् -एकमब्रह्म:   - अस्त्राय फट्।(फट्.. to drive the enemy away.)
अंगन्यास करने का सही तरीका क्या हैं?
अंग न्यास  ... सीधे  हाँथ के अंगूठे ओर अनामिका अंगुली को आपस में जोड़ ले। सम्बंधित मंत्र का उच्चारण करते जाये , शरीर के जिन-जिन भागों का नाम लिया जा रहा हैं उन्हें स्पर्श करते हुए यह भावना रखे की... वे भाग अधिक शक्तिशाली और पवित्र होते जा रहे हैं। .
उदाहरण;-
 1-ॐ--   ह्रदयाय नमः ----- बतलाई गयी उन्ही दो अंगुली से अपने ह्रदय स्थल को स्पर्श करे
 2-सत्  ---- अपने सिर को
 3-चित्-- शिखाये फट ---- अपनी शिखा को (जोकि सिर के उपरी पिछले भाग में स्थित होती हैं  )
 4- एकम  - कवचाय हुम् --- अपने बाहों को
 5-ब्रह्म: - नेत्र त्रयाय वौषट-----अपने आँखों को
 6-ॐ सत्- चित् -एकमब्रह्म: ---अस्त्राय फट् --- तीन बार ताली बजाये
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 नोंध

हम तीन बार ताली बजाते क्यों है?वास्तव में , हम हमेशा से बहुत शक्तियों  से घिरे रहते हैं  और जो हमेशा से हमारे द्वारा किये जाने वाले मंत्र जप को हमसे छीनते जाते हैं , तो तीन बार सीधे हाँथ की हथेली को सिर के चारो ओर चक्कर लगाये / सिर के चारो तरफ वृत्ताकार में घुमाये ,इसके पहले यह देख ले की किस नासिका द्वारा हमारा स्वर चल रहा हैं , यदि सीधे हाँथ की  ओर वाला स्वर चल रहा हैं तब ताली बजाते समय उलटे हाँथ को नीचे रख कर सीधे हाँथ से ताली बजाये . ओर यदि नासिका स्वर उलटे हाथ (LEFT)की ओर का चल रहा हैं तो सीधे(RIGHT) हाँथ की हथेली को नीचे रख कर उलटे (Left) हाँथ से ताली उस पर बजाये ) इस तरीके से करने पर हमारा मन्त्र जप सुरक्षित रहा हैं ,सभी साधको को इस तथ्य  पर  ध्यान देना ही चाहिए... 

10 बीज मंत्र

1-“ऐं”;-
“ऐं” सरस्वती बीज । यह मां सरस्वती का बीज मंत्र है, इसे वाग् बीज भी कहते हैं। जब बौद्धिक कार्यों में सफलता की कामना हो, तो यह मंत्र उपयोगी होता है। जब विद्या, ज्ञान व वाक् सिद्धि की कामना हो, तो श्वेत आसान पर पूर्वाभिमुख बैठकर स्फटिक की माला से नित्य इस बीज मंत्र का एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

2-“ह्रीं” ;-

“ह्रीं” भुवनेश्वरी बीज । यह मां भुवनेश्वरी का बीज मंत्र है। इसे माया बीज कहते हैं। जब शक्ति, सुरक्षा, पराक्रम, लक्ष्मी व देवी कृपा की प्राप्ति हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

3-“क्लीं”;-

“क्लीं” काम बीज । यह कामदेव, कृष्ण व काली इन तीनों का बीज मंत्र है। जब सर्व कार्य सिद्धि व सौंदर्य प्राप्ति की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

4-श्रीं”;-

“श्रीं” लक्ष्मी बीज । यह मां लक्ष्मी का बीज मंत्र है। जब धन, संपत्ति, सुख, समृद्धि व ऐश्वर्य की कामना हो, तो लाल रंग के आसन पर पश्चिम मुख होकर कमलगट्टे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

5-हं (हनुमद् बीज);-

इसमें ह्-हनुमान, अ- संकटमोचन एवं बिंदु- दुखहरण है। इसका अर्थ है- संकटमोचन हनुमान मेरे दुख दूर करें। बजरंग बली की आराधना के लिए इससे बेहतर मंत्र नहीं है।

6--"ह्रौं";-

"ह्रौं" शिव बीज । यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।इस बीज में ह्- शिव, औ- सदाशिव एवं बिंदु- दुखहरण है। इस बीज का अर्थ है- भगवान शिव मेरे दुख दूर करें।

7-"गं"

"गं" गणेश बीज । यह गणपति का बीज मंत्र है। विघ्नों को दूर करने तथा धन-संपदा की प्राप्ति के लिए पीले रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

8-श्रौं"

"श्रौं" नृसिंह बीज । यह भगवान नृसिंह का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, सर्व रक्षा बल, पराक्रम व आत्मविश्वास की वृद्धि के लिए लाल रंग के आसन पर दक्षिणाभिमुख बैठकर रक्त चंदन या मूंगे की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

9-“क्रीं”

“क्रीं” काली बीज । यह काली का बीज मंत्र है। शत्रु शमन, पराक्रम, सुरक्षा, स्वास्थ्य लाभ आदि कामनाओं की पूर्ति के लिए लाल रंग के आसन पर उत्तराभिमुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।

10-“दं”

“दं” विष्णु बीज । यह भगवान विष्णु का बीज मंत्र है। धन, संपत्ति, सुरक्षा, दांपत्य सुख, मोक्ष व विजय की कामना हेतु पीले रंग के आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर तुलसी की माला से नित्य एक हजार बार जप करने से लाभ मिलता है।
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नमः ,स्वाहा, स्वधा, वषट्, वौषट्, हुम् ,फट् ... इन शब्दों का क्या मतलब होता है और मंत्रो के अंत में ऐसे शब्द के उच्चार क्यों किये जाते है ?

1-कुछ मंत्रो के अंत में नमः आता है तो किसी के अंत में स्वाहा ,स्वधा , वषट् ,वौषट् फट् आदि ।इन शब्दों का क्या मतलब होता है और मंत्रो के अंत में ऐसे शब्द के उच्चार क्यों किये जाते है ?

2-वास्तव में इस संसार में जो भी मन्त्र है, शब्द हैं उसमें जो मातृका शक्ति है, अक्षर शक्ति है ओर उन शब्दों से जो अर्थ या ज्ञानबोध होता है वो सब महामाया जगदम्बा का ही वैभव है।मंत्र शब्द मन +त्र के संयोग से बना है !मन का अर्थ है सोच ,विचार ,मनन ,या चिंतन करना ! और “त्र ” का अर्थ है बचाने वाला , सब प्रकार के अनर्थ, भय से !

3-लिंग भेद से मंत्रो का विभाजन पुरुष ,स्त्री ,तथा नपुंसक के रूप में है !पुरुष मन्त्रों के अंत में “हूं फट ” स्त्री मंत्रो के अंत में “स्वाहा ” ,तथा नपुंसक मन्त्रों के अंत में “नमः ” लगता है ! मंत्र साधना का योग से घनिष्ठ सम्बन्ध है…

 07 विशिष्ट बीज मंत्र

1-नमः 
नमः का मतलब होता है नमस्कार करना । वंदन करना । जैसे ॐ नमः शिवाय का मतलब " हे शिव, में आपको वंदन करता हूं / प्रणाम करता हूं ।"
2-स्वाहा 
यदि किसी मंत्र के अंत मे स्वाहा आता हो तो स्वाहा का मतलब किसीको सलाम करना, रिसपेक्ट देना, प्रशंसा करना और शरण में जाना ऐसा होता
है। जैसे ॐ ह्रीं सूर्याय स्वाहा ।अगर हवन करते वक्त स्वाहा बोला जाय तो मतलब अग्नि स्वरूप देवताओं के लिए अग्नि में कुछ अर्पण करना ।
3-स्वधा 
स्वधा का मतलब कुछ ना कुछ पितृओ को अर्पण करना । पितृओ की इच्छा या वासना तृप्त करने हेतु तर्पण मंत्रों से पितृओ को जल अर्पण करना या श्राध्द में पिंड देना । स्वधा शब्द का प्रयोग सिर्फ पितृओ के लिए किया जाता है । स्वधा का मतलब आप स्वीकार करें ।
4-वषट्
वषट का मतलब वश मे हो जाओ। काबु मे आ जाओ । कंट्रोल में रहो । जब हम कोई साधना करते हैं तो कुछ मंत्रों के अंत मे वषट आता है ।
5-हुम् 
हुम् एक ध्वनि है जिसको mantra के अंत मे बोलने से हमारे आसपास एक कवच बन जाता है।हुम् का मतलब हमारी रक्षा हो।जब हम तांत्रिक प्रयोग या मंत्र करते है तो हमारी खुद की रक्षा करना भी जरूरी हो जाता है ।
6-वौषट्
वौषट का मतलब भी वश करना ही होता है पर उसका संबंध दृष्टि के साथ है। किसी भी साधना में जब कोई goal या सिद्धि प्राप्त करनी हो तो वौषट शब्द का प्रयोग होता है। जैसे की मैं अपनी आंखों से ये देख पाऊं या मेरी दृष्टि में वो प्राप्त हो ।

7-फट् 
फट् शब्द का मतलब है बाण छोड़ना । किसी ध्येय को प्राप्त करने या किसी इन्सान को नज़र मे रख के कोई मंत्र पढ़ा जाता हो तो अंत मे फट् बोला जाता है ।फट् बोलने से वो मंत्र सीधा वो इन्सान या वस्तु की तरफ
जाता है ।अंत मे अगर ' हुम् फट् ' बोला जाय तो उसका मतलब है .... मैं अपनी रक्षा करते हुए उसकी तरफ ये मंत्र छोड़ता हूं । जैसे " ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुम् फट् ।"
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नोंध

जिसके अंत मे वषट और फट् जैसे शब्द आते हो ऐसे मंत्र सावधानी पूर्वक करने चाहिए क्योंकि किसी का नुकसान करने वाले मंत्रो का रिएक्शन भी हो सकता है ।ध्यान रहे मंत्र में जहाँ पर फट्  शब्द आता है वहा फट् बोलने के साथ-साथ 2 उँगलियों से दूसरे हाथ की हथेली पर ताली बजानी है।

12-''ह्रौं" शिव बीज है। यह भगवान शिव का बीज मंत्र है। अकाल मृत्यु से रक्षा, रोग नाश, चहुमुखी विकास व मोक्ष की कामना के लिए श्वेत आसन पर उत्तर मुख बैठकर रुद्राक्ष की माला से नित्य १००८ बार जप करने से आश्चर्य जनक परिवर्तन होता है।

13-ॐ जुं सः॥

14-"खं" - एक बीज मंत्र है "खं" .....जिसके सवा लाख जाप से हार्ट-अटैक कभी नही होता है | हाई बी.पी., लो बी.पी. कभी नही होता कोलस्टौल को भी कंट्रोल किया जा सकता है |  54 माला जप करें, तो लीवर ठीक हो जाता है | 108 माला जप करें तो शनि, राहू, केतू ग्रहों का प्रभाव चला जाता है | 
15-कं - ब्रह्म परमात्मा का शब्द है 'कं' ,ब्रह्म वाचक | वास्तव में, ब्रह्म परमात्मा के 3 विशेष मंत्र हैं  ''ॐ, खं और कं'' |
 15-कां -पेट सम्बन्धी कोई भी विकार और विशेष रूप से आँतों की सूजन में लाभकारी |
 16-गुं-मलाशय और मूत्र सम्बन्धी रोगों में उपयोगी |
 17-शं -वाणी दोष , स्वप्न दोष , महिलाओं में गर्भाशय सम्बन्धी विकार और हार्निया आदि     रोगों में उपयोगी है |
 18-घं -काम वासना को नियंत्रित करने वाला और मारण-मोहन और उच्चाटन आदि
      के दुष्प्रभाव के कारण जनित रोग विकार को शांत करने में सहायक है |
 19-ढं - मानसिक शांति देने में सहायक तथा आभिचारिक कृत्यों जैसे मारण- मोहन-स्तम्भन आदि प्रयोगों से उत्पन्न हुए विकारों में उपयोगी है |
 20-पं -फेफड़ों के रोग जैसे टी वी , अस्थमा , श्वास रोग आदि के लिए गुणकारी है |
 21-बं -शुगर , वामन , कफ विकार , जोड़ों के दर्द एवं सभी वात रोगों में आदि में सहायक है|
 22-यं -बच्चों के चंचल मन को एकाग्र करने में अंत्यंत सहायक |
 23-रं -उदर विकार , शरीर में पित्त जनित रोग , ज्वर आदि में उपयोगी है|
 24-लं -महिलाओं के अनियमित मासिक धर्म , उनके अनेक गुप्त रोग तथा विशेष रूप से आलस्य को दूर करने में उपयोगी है |
 25-मं -महिलाओं में स्तन सम्बन्धी विकारों में सहायक है ।
 26-धं -तनाव से मुक्ति के लिए , मानसिक संताप दूर करने में उपयोगी है।
 27-ऐं -वात नाशक , रक्त चाप , रक्त में कोलेस्ट्रोल , मूर्छा आदि असाध्य रोगों तथा पित्त रोगों में सहायक है |
 28-द्वां -कान के समस्त रोगों में सहायक है |
 29-ह्रीं -कफ विकार जनित रोगों में सहायक है |
 30-शुं -आँतों के विकार तथा पेट सम्बन्धी अनेक रोगों में सहायक है |https://cutt.ly/sja7hCq
 31-हुं -यह बीज एक प्रबल एंटीबायोटिक सिद्ध होता है | गाल-ब्लैडर , अपच , लिकोरिया आदि रोगों में उपयोगी है|

32-अं -पथरी , बच्चों के कमजोर मसाने , पेट की जलन , मानसिक शान्ति आदि में सहायक इस बीज का सतत जाप करने से शरीर में शक्ति का संचार उत्पन्न होता है।

33-बं-  ये शिवजी की पूजा में बं बीज मंत्र लगता है |लेकिन बं...उच्चारण करने से वायु प्रकोप दूर हो जाता है | गठिया ठीक हो जाता है | बं....शब्द,से गैस ट्रबल और  72 वात जनित रोग ठीक हो सकते हैं।


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