क्या_है_षोडश_मातृका_रहस्य?क्या_ईश्वर_अजन्मा_अप्रकट_और_निराकार_है? PARASHMUNI

#क्या_है_षोडश_मातृका_रहस्य?
#सप्तमातृका_का_क्या_महत्व_है?
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1-जब हम मंदिरों में दर्शन पूजन को जाते हैं तो वहां अवस्थित मुख्य प्रतिमा के साथ ही विभिन्न मातृ देवियों की प्रतिमाएं भी देखने को मिलती हैं।इन मातृकाओं की संख्या को लेकर भी अलग अलग मत हैं, एक मत के अनुसार इनकी संख्या सात हैं जिनके आधार पर इन्हें सप्तमातृका कहा जाता है।किसी-किसी सम्प्रदाय में मातृकाओं की संख्या आठ (अष्टमातृका) बतायी गयी है। नेपाल में अष्टमातृकाओं की पूजा होती है। दक्षिण भारत में सप्तमातृकाएँ ही पूजित हैं। कुछ विद्वान उन्हें शैव देवी मानते हैं।वैसे ऋग्वेद में सात माताओं का जिक्र है जिनकी देखरेख में सोम की तैयारी होती है।

 2-मातृका हिन्दू धर्म में माताओं का प्रसिद्ध समूह है जिनकी उत्पत्ति आदिशक्ति माँ पार्वती से हुई है। सप्तमातृकाओं में सात देविओं की गिनती की जाती है जिनकी पूजा वृहद् रूप से भारत, विशेषकर दक्षिण में की जाती है। नेपाल में विशेषकर अष्टमातृकाओं की पूजा की जाती है जो आठ देवियों का समूह है। इनमे से हर देवी किसी न किसी देवता/देवी की शक्ति को प्रदर्शित करती है। इनमे से पहली छः मातृका तो पूरे विश्व में एक मत से मान्य हैं किन्तु अंतिम दो के बारे में अलग-अलग जगह कुछ शंशय एवं विरोध है। 

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 3-मार्कण्डेय पुराण में वर्णन मिलता है कि युद्ध में चण्डिका की सहायता के लिए सप्तमातृकाएं उत्पन्न हुईं थीं। इन्हीं सप्तमातृकाओं की सहायता से देवी ने रक्तबीज का वध किया था। ये सात देवियां अपने पतियों के वाहन तथा आयुध के साथ यहां उपस्थित होती हैं । यह सात देवियां हैं ब्राह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वैेष्णवी, वाराही, नारसिंही व ऐन्द्री। इन सात के साथ जब चामुण्डा को मातृकाओं की गणना में शामिल कर लिया जाता है तो यह संख्या आठ हो जाती हैं। कुछ स्थानों पर नारसिंही के स्थान पर चामुण्डा को जगह दे दिया जाता है। इस तरह हम पाते हैं कि जहां नारसिंही और चामुण्डा दोनों को इसमें शामिल किया जाता है वहां यह संख्या आठ हो जाती है अन्यथा यह सात ही रहती है। सुत्रधारमंडन रचित ग्रंथ रूपमंडन के अनुसार सप्तमातृका के आरंभ में वीरभद्र और अंत में गणेश की प्रतिमा होनी चाहिए। 

4-सप्तमातृका की एकल व संयुक्त प्रतिमाएं मुख्यत: तीन रूपों में पायी गई हैं- स्थानक यानी खड़ी प्रतिमा, आसनस्थ यानी बैठी हुई प्रतिमाएं व नृत्यरत प्रतिमा। पुराणों में जो वर्णन है उसके अनुसार मातृका के चार हाथ हैं व गोद में शिशु है। कुछ प्रतिमाओं में उनके वाहन को ध्वजा में अंकित किया गया है तो कुछ स्थानों में उनके आसन पर उनके वाहन या सवारी का अंकन मिलता है। इसके अलावा अन्य प्रसंगों में भी मातृकाओं की चर्चा युद्ध में देवताओं की मदद करने वाली शक्तियों के तौर पर की गई हैं। एकतरफ जहां इन्हें संहारक की भूमिका में देखा गया है तो वहीं उनके पालनकर्ता वाले रूप की भी पर्याप्त चर्चा मिलती है। 
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#अष्ट_मातृका के रूप स्वरूप की #संक्षिप्त_जानकारी

 भारतीय मूर्तिविज्ञान के अनुसार इन मातृकाओं की प्रतिमा  की एकल व संयुक्त प्रतिमाएं मुख्यत: तीन रूपों में पायी गई हैं- स्थानक यानी खड़ी प्रतिमा, आसनस्थ यानी बैठी हुई प्रतिमाएं व नृत्यरत प्रतिमा। पुराणों में जो वर्णन है उसके अनुसार मातृका के चार हाथ हैं व गोद में शिशु है। कुछ प्रतिमाओं में उनके वाहन को ध्वजा में अंकित किया गया है तो कुछ स्थानों में उनके आसन पर उनके वाहन या सवारी का अंकन मिलता है।वराह पुराण में सातवीं मातृका के तौर पर यमी का और आठवीं के रूप में योगीश्वरी का विवरण है।इनके अलावा विभिन्न ग्रंथों में मातृकाओं की सूची मे काफी मतभिन्नता है।

1-ब्राह्मणी:-

ये परमपिता ब्रह्मा की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं। ये पीत वर्ण की है तथा इनकी चार भुजाएँ हैं। ब्रह्मदेव की तरह इनका आसन कमल एवं वाहन हंस है।ब्रह्माणी की प्रतिमा में वे चार मुखों वाली हैं व चार भुजाएं हैं। एक हाथ वरद मुद्रा में तो दूसरा अभय मुद्रा में और तीसरे हाथ में यज्ञपात्र है। इनका वाहन हंस है और गोद में शिशु है। 
2-वैष्णवी:-

ये भगवान विष्णु की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं। इनकी भी चार भुजाएँ हैं जिनमे ये भगवान विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा एवं कमल धारण करती है। नारायण की भांति ये विविध आभूषणों से ऐश्वर्य का प्रदर्शन करती हैं तथा इनका वाहन भी गरुड़ है। 

3-माहेश्वरी:-

महादेव की शक्ति को प्रदर्शित करने वाली चार भुजाओं वाली ये देवी नंदी पर विराजमान रहती हैं ,जो पंचमुखी हैं। इनका दूसरा नाम रुद्राणी भी है जो महरूद्र की शक्ति का परिचायक है। महादेव की भांति ये भी त्रिनेत्रधारी एवं त्रिशूलधारी हैं। इनके हाथों में त्रिशूल, डमरू, रुद्राक्षमाला एवं कपाल स्थित रहते हैं।  
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4-इन्द्राणी:-

ये देवराज इंद्र की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं जिन्हे ऐन्द्री, महेन्द्री एवं वज्री भी कहा जाता है। इनकी चार भुजाएं एवं हजार नेत्र बताये गए हैं। इंद्र की भांति ही ये वज्र धारण करती हैं और ऐरावत पर विराजमान रहती हैं। 

5-कौमारी;-

  शिवपुत्र कार्तिकेय की शक्ति स्वरूपा ये देवी कुमारी, कार्तिकी और अम्बिका नाम से भी जानी जाती हैं। मोर पर सवार हो ये अपने चारो हाथों में परशु, भाला, धनुष एवं रजत मुद्रा धारण करती हैं। वे छः मुखों वाली हैं और मोर पर सवार हैं।कभी-कभी इन्हे स्कन्द की भांति छः हाथों के साथ भी दिखाया जाता है।
 
6-वाराही:-

ये भगवान विष्णु के अवतार वाराह अथवा यमदेव की शक्ति को प्रदर्शित करती हैं।इनका मुख वाराह का है जो सफेद रंग के भैंसे पर सवार हैं। ये अपने चार हाथों में दंड, हल, खड्ग एवं पानपत्र धारण करती हैं । इन्हे भी अर्ध नारी एवं अर्ध वराह के रूप में दिखाया जाता है। 
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7-#चामुण्डा:-

ये देवी चंडी का ही दूसरा रूप है और उन्ही की शक्तियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन्हे चामुंडी या चर्चिका भी कहा जाता है। इनका रंग रूप महाकाली से बहुत मिलता जुलता है। नरमुंडों से घिरी कृष्ण वर्ण की ये देवी अपने चारों भुजाओं में डमरू, खड्ग, त्रिशूल एवं पानपत्र लिए रहती हैं। त्रिनेत्रधारी ये देवी सियार पर सवार शवों के बीच में अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं। 

8-#नारसिंहि:-

विष्णु अवतार नृसिंह की प्रतीक इन देवी का स्वरुप भी उनसे मिलता है। इन्हे नरसिंहिका एवं प्रत्यंगिरा भी कहा जाता है।इनका मुख शेरनी का है और उनके हाथ में गदा और खड्ग हैं। 
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छठी महोत्सव अथार्त #सप्त_मातृका_पूजन_साधना

1-मातृका शब्द का अर्थ जन्मदात्री, धात्री और मां है। सप्तमातृकाओं की पूजा नवजात शिशु की हर प्रकार के अनिष्टों से रक्षा करती हैं और इसी कारण बच्चे के जन्म पर उनकी पूजा का प्रावधान षष्ठी को है।पर, जैसे-जैसे बच्चा बढ़ता है, उसके जीवन में संघर्ष और बाधाओं में भी बढ़ोत्तरी होती जाती है। कई बार ये बाधाएं रोग के रूप में आती हैं, तो कई बार बच्चे का सर्वांगीण विकास बाधित हो जाता है। अतएव, एक ऐसी साधना अनिवार्य थी जिससे बच्चों पर आयी ग्रह-जनित बाधा का निराकरण किया जा सके। पर यह साधना आप अपने बच्चों के लिए कर सकते हैं साथ ही साथ स्वयं के लिए कर सकते हैं।

2-“ब्रह्मऋषियों में पहली बार माता बनी लोपामुद्रा (ऋषि अगस्त्य की पत्नी) और अरुंधति (ऋषि वसिष्ठ की पत्नी) दोनों एक ही समय पर प्रसूत हुईं। अगस्त्य-लोपामुद्रा एवं वसिष्ठ-अरुंधति, इन चारों ने अपने अपने बच्चे के लिए जो पहला पूजन किया उसे ’सप्तषष्ठी पूजन’ के नाम से सम्बोधित किया गया।

 3-अगर, आपको ऐसा लगता है कि आपको ग्रह-जनित बाधाएं है तो आप इन बाधाओं के निवारण के लिए सीधे ग्रहों की साधना नहीं करके उनकी माताओं की साधना कर सकते हैं, जो अत्यधिक प्रभावकारी हैं, क्योंकि जब आपने मां को प्रसन्न कर लिया तो उस क्षण पुत्र को भी मां की बात अवश्य माननी पड़ेगी।शास्त्रों में वर्णित है कि शुंभ और निशुंभ नामक राक्षसों से लड़ते समय महासरस्वती की सहायता के लिए सभी देव अपनी-अपनी शक्ति भेजते हैं। वे सात शक्तियों ही सप्तमातृकाएं हैं और उनकी सेनापति हैं काली।  
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 4-इन सप्तमातृकाओं का पूजन ही सप्तषष्ठी पूजन है। कथा है कि शुंभ और निशुंभ का तो युद्ध में सप्तमातृकाओं ने वध कर दिया, पर शुंभ का पुत्र दुर्गम कौए का रूप बनाकर उनसे बच गया, क्योंकि शत्रु के पुत्र के प्रति भी इन सप्तमातृकाओं के मन में वात्सल्य का भाव उमड़ पड़ा।उनके इस कृत्य से प्रसन्न होकर महासरस्वती ने इन सप्तमातृका शक्तियों को आशीर्वाद दिया कि जो भी मनुष्य अपने घर में बच्चे के जन्म के बाद इन सप्तमातृकाओं का पूजन करेगा, उस बच्चे की आप रक्षक बनना। तब से, घर घर में बच्चे के जन्म के पश्चात् इन सात मातृकाओं का पूजन करने की प्रथा शुरू हुई।

5-वास्तव में ही यह साधना अचूक एवं प्रामाणिक है आज तक इसे असफल होते नहीं देखा गया है ।यह साधना एक दिवसीय और रात्रिकालीन है। साधक को चाहिए कि किसी भी शुभ मुहूर्त या शुक्ल पक्ष की षष्ठी अथवा किसी भी गुरुवार को स्नान आदि से निवृत्त होकर रात को श्‍वेत धोती धारण कर उत्तराभिमुख होकर श्‍वेत आसन पर बैठें। फिर अपने समक्ष लकड़ी के एक बाजोट पर श्‍वेत वस्त्र बिछाकर उस पर ‘सप्त माता यंत्र (ताबीज)’ स्थापित कर उसका पंचोपचार से पूजन करें और फिर उस पर निम्न मंत्र का उच्चारण करता हुआ कुंकुम से रंगे हुए चावल अर्पित करें।
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ॐ माहेश्‍वरी नमः। ॐ वैष्णवी नमः। ॐ ब्रह्माणी नमः। ॐ ऐन्द्री नमः। ॐ कौमारी नमः। —ॐ नारसिंही नमः। ॐ वाराही नमः।

फिर ‘ रुद्राक्ष माला’ से निम्न मंत्र की 21 मालाएं मंत्र जप करें।

6-मंत्र;-

॥ॐ ऐं क्लीं सौः सप्तमातृकाः सौः क्लीं ऐं ॐ फट्॥

7-साधना के उपरांत व्यक्ति समस्त साधना सामग्री एवं पूजन सामग्री को अगले ही दिन किसी तालाब, कुएं आदि में विसर्जित कर दें। फिर घर आकर 1, 3, 5 या 7 जितनी सामर्थ्य हो उतनी छोटी कन्याओं को भोजन, वस्त्र, दान दक्षिणा दें। ऐसा करने से साधना पूर्ण सफल होती है, और संतान के ऊपर से समस्त ग्रह कोप एवं क्रूर ग्रहों के प्रभाव समाप्त हो जाते हैं।  

छठी महोत्सव में सप्त मातृका पूजन कैसे किया जाता है ?-
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पूजन की सजावट :

1) एक पाटा लें। उसके नीचे ‘स्वस्तिक’ या ‘श्री’ की रंगोली बनाएँ क्योंकि यह मंगलचिन्ह हैं। पूजन की सजावट पाटे पर ही करें, चौरंग या टेबल पर न करें क्योंकि बड़ी माँ के समक्ष हम सब उसके बच्चे ही हैं। बालक पहला कदम पाटे की ऊँचाई तक ही उठा सकता है इसलिए पूजन की सजावट में पाटे का ही इस्तेमाल करें।

2) पाटे पर शाल/पीताम्बर/चादर बिछाएं। पाटे के इर्दगिर्द रंगोली से सजाएंगे तो भी चलेगा।

3) एक थाली   में किनारे तक समतल गेहूं भरें।

4) उसमें बीचोबीच एक और उसके इर्दगिर्द  6 सुपारियां रखें।

 5) पाटे पर थाली के दोनों तरफ दो नारियल रखें। नारियल को हल्दी कुमकुम लगाएं।
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 6) दोनों नारियल के अंदर की तरफ, थाली के समक्ष लाल अक्षताओं की राशि (ढेर) रखें। यह राशियां देवों के वैद्य अश्विनीकुमारों की पत्नियां हैं। यह सगी जुड़वा बहनें हैं और उनके नाम जरा और जीवंतिका हैं। यह दोनों अश्विनीकुमारों की तरह एकदूसरे के बिना नहीं रह सकतीं और यह दोनों छोटे बच्चों के साथ खेलती हैं, उनका लालन-पालन करती हैं, ऐसी धारणा है। बालक तीन महीने का होने तक जब जब हसता   है, तब वह हसी बच्चे द्वारा इन दोनों को दिया हुआ प्रत्युत्तर होता है।

 6-1-) जरा का अर्थ है बुढ़ापा देनेवाली। बच्चा बहुत बहुत वृद्ध होने तक जीए ऐसा वह आशीर्वाद देती है।

 6-2-) जिवंतिका का अर्थ है बच्चे के जीवन के अंत तक उसके स्वास्थ्य का खयाल रखूंगी ऐसा आशीर्वाद देनेवाली।

 7) पाटे पर चार दिशाओं में चार बीड़े रखें। उन पर एक एक सुपारी रखें। पूजन में बीड़ा रखने का अर्थ है भगवान को ‘आमंत्रित’ करना। बीड़ा-सुपारी से किया हुआ आमंत्रण किसी भी मंत्र के बिना किया हुआ आमंत्रण होता है। यह साक्षात आदिमाता के कात्यायनी स्वरूप ने कहा है। बीड़ा रखने से भगवान को आमंत्रण पहुँचता ही है क्योंकि यह कात्यायनी का संकल्प है।

 8) थाली की पिछली तरफ थाली से टेककर सप्तमातृकाओं का फोटो रखें।
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#सप्तमातृका_पूजन_विधि

 1) यह पूजन सूर्योदय से सूर्यास्त के दौरान ही किया जाए। अमावस के दिन भी किया जा सकता है।

 2) बच्चे के जन्म के बाद पहला पूजन बच्चे के पिता को ही करना है। पूजन करते हुए पिता बच्चे को, थोड़े समय के लिए ही सही, अपनी गोद में लेकर बैठे। यह पूजन बच्चे के जन्म के पश्चात तीन दिनों के बाद कभी भी किया जा सकता है।किसी कारणवश अगर बालक का पिता पूजन के समय उपलब्ध नहीं है तो पितामह (बालक के दादाजी) या मातामह (बालक के नानाजी) यह पूजन कर सकते हैं। मान लीजिए कि वे भी उपलब्ध नहीं हों तो रिश्तेदारों में से कोई भी नज़दीकी पुरुष यह पूजन करे।

 3) पूजन के आरम्भ में सर्वप्रथम ’वक्रतुण्ड महाकाय……..’ यह श्लोक कहें।

 4) उसके बाद गुरुक्षेत्रम्‌ मंत्र कहें और उसके बाद सद्गुरु का नाम जपना आवश्यक है।
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 5) बीडा सुपारी पर हल्दी, कुमकुम, अक्षता और तिलक लगाएं। कुमकुम गीला करके लगाएं। तत्पश्चात थाली में रखी हुई सुपारियों पर हल्दी, कुमकुम, अक्षता और तिलक लगाएं।

 6) तत्पश्चात मातृवात्सल्यविन्दानम्‌ में से ‘नवमंत्रमाला स्तोत्रम’ का पाठ करते हुए पूजन करें।  

 7) स्तोत्र पाठ करते हुए गंधाक्षत पर सुगंधित फूल अर्पण करें।  फूल सुपारियों पर, सप्तमातृकाओं की तस्वीर पर तथा जरा जीवंतिका के प्रतीकवाले अक्षताओं के राशियों पर अर्पण करें। अग्निकोण में दीवार पर घी की धार से सात बिन्दुओं को बनाकर गुड़ से एक में मिला देना चाहिए और नाम ले लेकर उनका आह्वान - पूजन करना चाहिए ।स्तोत्रपाठ करते हुए केवल पहले आवर्तन के समय ही फूल अर्पण करें।
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 8) तत्पश्चात दीप व धूप करें।

 9) तत्पश्चात भोग की सात थालियां बनाएं और  भोग अर्पण करें। साथ ही साथ गुड-खोपरे (आधा खोपरा) का भोग भी अर्पण करें।

 10) भोग अर्पण करने के बाद अंत में सम्भव हो तो कमल के फूल अर्पण करें क्योंकि ‘कमल’ भगवान का पसंदीदा पुष्प है।

 11)पूजन के बाद कम से कम 3 घंटों तक सजावट वैसे ही रखी रहे और उसके बाद आप कभी भी सजावट हटा सकते हैं। उस में से फूल और सुपारी का विसर्जन करें। गेहूं अपने घर में ही प्रसाद के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर सम्भव हो सके तो उस में से मुट्ठी भर गेहूं गाय को खिलाना अच्छा होता है। भोग हमेशा की तरह घर के आप्तजन प्रसाद के तौर पर ग्रहण करें। सप्तमातृकाओं की तस्वीर विसर्जन नहीं करनी है। वह तस्वीर   घर में किसी भी सुरक्षित स्थान पर रखें। तस्वीर फ्रेम करके पूजाघर/घर के मंदिर में रखें।
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 12)बच्चा बड़ा होने के बाद यह पूजन माँ अपने बड़े बच्चे के लिए कर सकती है। इसके लिए उम्र का कोई बंधन नहीं है। आप अपने बच्चों का कितनी बार भी यह पूजन कर सकते हैं। उसके जन्मदिन पर, बच्चे की बीमारी दूर हो जाने पर करें, या किसी भी अन्य दिन करें। तभी यह पूजन माता-पिता अकेले अकेले या दोनों साथ मिलकर भी कर सकते हैं। इस तरह एक बार पूजन किया तो फिरसे करना ही चाहिए ऐसा भी नहीं है। बच्चे यदि एक से अधिक हैं तो प्रत्येक के लिए अलग अलग पूजन करना लाभदाई है।  

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#षोडश_मातृका_रहस्य

1-किसी भी शुभ अवसरों या पर्व त्यौहारों पर एवं विशेषकर विवाह संस्कार में षोडश मातृकाओं, सप्तमातृकाओं एवं नवग्रह की स्थापना कर किए जा रहे कार्य की सफलता के लिए विशेष प्रार्थना की जाती हैं।विवाह जैसे पवित्र कर्म में इनके स्थापन और पूजन विधि विधान से करने पर निर्विघ्न रूप से आजोजन पूर्ण हो जाता हैं। किसी भी कार्य के निर्विध्न संपादन व संचालन के लिए भगवान गजानन के साथ ही  षोडश मातृकाओं का स्मरण और पूजन अवश्य करना चाहिए।

2-इससे न केवल कार्य की सिद्धि होती है बल्कि उसका संपूर्ण फल भी प्राप्त होता है। षोडशमातृकाओं की स्थापना के लिए फर्श पर वृत्ताकार मंडल बनाया जाता है। इस आकृति में सोलह कोष्ठक (खाने) बनाए जाते हैं। पश्चिम दिशा से पूर्व दिशा की ओर मातृकाओं की स्थापना की जाती हैं ।प्रत्येक कोष्ठक में अक्षत, जौ, गेहूँ रखें जाते  हैं।

3-अनुष्ठान में अग्निकोण की वेदिका या पाटे पर सोलह कोष्ठक के चक्र की रचना कर उत्तर मुख या पूर्व मुख के क्रम से सुपारी व अक्षत पर क्रमश: इन 16 मातृकाओंकी पूजा का विधान है।  ।

किसी भी देवी या देवता की पूजा में आह्वान का सबसे अधिक महत्व होता है क्योंकि उस देवी या देवता के आह्वान के बिना पूजा कार्य प्रारंभ नहीं होता है।पहले कोष्ठक में गौरी का आह्वान किया जाता है।

लेकिन गौरी के आह्वान से पहले भगवान गणेश के आह्वान की परंपरा है। गणेश का आह्वान पुष्प और अक्षत से किया जाता है। अन्य कोष्ठकों में मंत्र उच्चारित करते हुए आह्वान किया जाता   हैं।
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4-षोडशमातृका पूजन में महादेवियों का आह्वान और स्थापना के लिए  मंत्रों का उच्चारण किया जाता है।षोडशमातृकाओं के नाम है .....

गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, धृति, पुष्टि, तुष्टी एवं 'कुलदेवता', जो हरेक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होते है...

षोडशमातृकाओं का वर्णन ;-

1-माता गौरी ;-

यश, मंगल, सुख-सुविधा आदि व्यवहारिक पदार्थ तथा मोक्ष-प्रदान करना इनका स्वभाविक गुण है।

गौरी शरणगतवत्सला एवं तेज की अधिष्ठात्री देवी है।सूर्य में जो तेज है वह माता गौरी की कृपा से ही है।भगवान शंकर को सदा शक्ति संपन्न बनाए रखने में इनका महत्वपूर्ण योगदान है।

माता गौरी दु:ख, शोक, भय, उद्वेग को सदा के लिए नष्ट कर देती है।इसलिए देवी भागवत में कहा गया है कि बिना गौरी-गणेश की पूजा के कोई कार्य सफल नहीं हो सकता।

आराधना स्त्रोत:- 

हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शंकरप्रियाम्। लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयम्यहम्। 
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2-माता पद्मा;-

 पद्मा माता लक्ष्मी का ही रूप है। जब-जब भगवान कल्कि का अवतार ग्रहण करते हैं तब-तब माता लक्ष्मी का नाम पद्मा ही होता है। पद्मा का अविर्भाव समुद्र मंथन के पश्चात हुआ है। वह समस्त ऐश्वर्य, वैभव, धन-धान्य और समृद्धि को प्रदान करती हंै।इसलिए यह विष्णुप्रिया हमेशा कमल पर विराजमान रहती हंै। ्आराधना स्त्रोत-

पद्मापत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नम:। पद्मासनायै पदमिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:।।

3-माता शची ;-

ऋग्वेद के अनुसार विश्व में जितनी भी सौभाग्यशाली नारियां हैं उनमें शची सबसे अधिक सौभ्याग्यशालिनी हैं। इनके रूप से सम्मोहित होकर ही देवराज इन्द्र ने इनका वरण किया। शची पवित्रता में श्रेष्ठ और स्त्री जाति के लिए आदर्श हैं।रूप, यौवन  का अभय वरदान प्राप्ति के लिए शची की आराधना श्रेयकर माना जाता है।

आराधना स्त्रोत- दिव्यरूपां विशालाक्षीं शुचिकुण्डलधारिणीम। रत्न मुक्ताद्यलडंकररां शचीमावाहयाम्यहम्।।
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4- माता मेधा: -

मत्स्य पुराण के अनुसार यह आदि शक्ति प्राणिमात्र में शक्ति रूप में विद्यमान है। हममें जो र्णयत्मिका बुद्धि शक्ति है वह आदिशक्ति स्वरूप ही है। माता मेधा बुद्धि में स्वच्छता लाती है। 

इसलिए बुद्धि को प्रखर और तेजस्वी बनाने एवं उसकी प्राप्ति के लिए मेधा का आह्वाहन करना चाहिए

आराधना स्त्रोत- वैवस्तवतकृत फुल्लाब्जतुल्याभां पद्मवसिनीम्। बुद्धि प्रसादिनी सौम्यां मेधाभावाहयाम्यहम्।।

5- माता सावित्री;- 

सविता सूर्य के अधिष्ठातृ देवता होने से ही इन्हें सावित्री कहा जाता है।इनका आविर्भाव भगवान श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ है।सावित्री वेदों की अधिष्ठात्री देवी है। संपूर्ण वैदिक वांडम्य इन्हीं का स्वरूप है। ऋग्वेद में कहा गया है कि माता सावित्री के स्मरण मात्र से प्राणी के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं  और उसमें ही अभूतपूर्व नई ऊर्जा के संचार होने लगता है। 

आराधना स्त्रोत- ऊॅ हृीं क्लीं श्री सावित्र्यै स्वाहा। 

6-माता विजया;- 

विजया, विष्णु, रूद्र और सूर्य के श्रीविग्रहों में हमेशा निवास करती है। इसलिए जो भी प्राणी माता विजया का निरंतर स्मरण व आराधना करता है वह सदा विजयी होता है। आराधना स्त्रोत- विष्णु रूद्रार्कदेवानां शरीरेष्पु व्यवस्थिताम्। त्रैलोक्यवासिनी देवी विजयाभावाहयाभ्यहम।
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7- माता जया;- 

प्राणी को चहुं ओर से रक्षा प्रदान करने वाली माता जया का प्रादुर्भाव आदि शक्ति के रूप में

हुआ है। दुर्गा सप्तशती के कवच में आदि शक्ति से प्रार्थना की गई है कि- 

  ''हे मां आप जया के रूप में आगे से और विजया के रूप में पीछे से मेरी रक्षा करें''।

आवाहन स्त्रोत: सुरारिमथिनीं देवी देवानामभयप्रदाम्। त्रैलोक्यवदिन्तां देवी जयामावाहयाम्यहम्।।

8-माता षष्ठी ;- 

'ब्रह्मवैवर्तपुराण' में छठ को स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत के इतिहास से जोड़ते हुए बताया गया है कि षष्ठी देवी की कृपा से प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो गया। तभी से प्रकृति का छठा अंश मानी जाने वाली षष्ठी देवी बालकों के रक्षिका और संतान देने वाली देवी के रूप में पूजी जाने लगी।लोक कल्याण के लिये माता भगवती ने अपना आविर्भाव ब्रह्मा के मन से किया है। अत: ये ब्रह्मा की मानस कन्या कही जाती है । ये जगत पर शासन करती है।  ब्रह्मा की आज्ञा से इनका विवाह कुमार स्कन्द से हुआ। माता षष्ठी  जिसे देवसेना भी कहा जाता है मूल प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई है। इसलिए इनका नाम षष्ठी देवी है। माता पुत्रहीन को पुत्र, प्रियाहीन को प्रिया- पत्नी और निर्धन को धन प्रदान करती हैं। विश्व के तमाम शिशुओं पर इनकी कृपा बरसती है। प्रसव गृह में छठे दिन, 21वें दिन और अन्नप्राशन के अवसर पर षष्ठी देवी की पूजा की जाती है।
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आवाहन स्त्रोत :-

मयूरवाहनां देवी खड्गशक्तिधनुर्धराम्। आवाहये देवसेनां तारकासुरमर्दिनीम्।।

9-माता स्वधा ;-

पुराणों के अनुसार जबतक माता स्वधा का आविर्भाव नहीं हुआ था तब तक पितरों को भूख और प्यास से पीडि़त रहना पड़ता था। ब्रह्मवैवत्र्त पुराण के अनुसार स्वधा देवी का नाम लेने मात्र से ही समस्त तीर्थ स्नान का फल प्राप्त हो जाता है, और संपूर्ण पापों से मुक्ति मिल जाती है।  यदि स्वधा, स्वधा, स्वधा, तीन बार उच्चारण किया जाए तो श्राद्ध, बलिवैश्वदेव और तर्पण का फल प्राप्त हो जाता है। माता याचक को मनोवंछित वर प्रदान करती है। 

आराधना स्त्रोत:-

ब्रह्मणो मानसी कन्यां शश्र्वत्सुस्थिरयौवनाम्। पूज्यां पितृणां देवानां श्राद्धानां फलदां भजे।।

10-माता स्वाहा:-

मनुष्य द्वारा यज्ञ या हवण के दौरान जो आहुति दी जाती है उसे संबंधित देवता तक पहुंचाने

में स्वाहा देवी ही मदद करती है।इन्हीं के माध्यम से देवताओं का अंश उनके पास पहुंचता है।इनका विवाह अग्नि से हुआ है। अर्थात मनुष्य और देवताओं को जोडऩे की कड़ी का काम माता अपने पति अग्नि देव के साथ मिलकर करती हैं। इनकी पूजा से मनुष्य की समस्त अभिलाषाएं पूर्ण होती है।

आराधना स्त्रोत:-

स्वाहां मन्त्राड़्गयुक्तां च मन्त्रसिद्धिस्वरूपिणीम। सिद्धां च सिद्धिदां नृणां कर्मणां फलदां भजे।।
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13-माता घृति;-

 माता सती ने अपने पिता दक्ष प्रजापति के प्रजापति पद से पदच्युत होने के पश्चात् उनके हित के लिए साठ कन्याओं के रूप में खुद को प्रकट किया। जिसकी पूजा कर राजा दक्ष पुन: प्रजापति हो गए। मत्स्य पुराण के अनुसार पिण्डारक धाम में आज भी देवी घृति रूप में विराजमान हंै।  माता घृति की कृपा से ही मनुष्य धैर्य को प्राप्त करता हुआ धर्म मार्ग में प्रवेश करता है।

14- माता पुष्टि ;-

माता पुष्टि की कृपा से ही संसार के समस्त प्राणियों का पोषण होता है। इसके बिना सभी प्राणी क्षीण हो जाते हैं। 

आवाहन स्त्रोत :-

पोषयन्ती जगत्सर्व शिवां सर्वासाधिकाम । बहुपुष्टिकरीं देवी पुष्टिमावाहयाम्यहम।।

15 -माता तुष्टि ;-

माता तुष्टि के कारण ही प्राणियों में संतोष की भावना बनी रहती है। माता समस्त प्राणियों का प्रयोजन सद्धि करती रहती हैं।

आवाहन स्त्रोत:-

आवाहयामि संतुष्टि सूक्ष्मवस्त्रान्वितां शुभाम्। संतोष भावयित्रीं च

रक्षन्तीमध्वरंं शुभम्।
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 16 -लोक माताएं/मातर:(मातृगण:) ;-

1-राक्षसराज अंधकासुर के वध के उपरांत उसके रक्त से उन्पन्न होने वालेे अनगिनत अंधक का भक्षण करने करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने अंगों से बत्तीस मातृकाओं की उत्पति की। ये सभी महान भाग्यशालिनी बलवती तथा त्रैलोक्य के सर्जन और संहार में समर्थ हैं । समस्त लोगों में विष्णु और शिव भक्तों की ये लोकमाताएं रक्षा कर उसका मनोरथ पूर्ण करती हैं। आवाहन स्त्रोत:-

आवाहये लोकमातृर्जयन्तीप्रमुखा:
शुभा:। नानाभीष्टप्रदा शान्ता: सर्वलोकहितावहा:।। आवाहये लोक मातृर्जगत्पालन संस्थिता:। शक्राद्यैरर्चिता
देवी स्तोत्रैराराधनैरतथा।
 2-#मातर:(मातृगण:)... शुम्भ- निशुम्भ के अत्याचारों से जब समस्त जगत त्राहिमाम कर रहा था तब देवताओं की
स्तुति से प्रसन्न होकर माता जगदंबा हिमालय पर प्रकट हुई। इनके रूप- लावन्य को देखकर राक्षसी सेना मोहित हो गई और एक-एक कर घूम्रलोचन, चंड-मुंड, रक्त- वीज समेत निशुम्भ और शुम्भ माता जगदंबा के विभिन्न रूपों का ग्रास बन गये और समस्त लोको में फिर दैवीय शक्ति की स्थापना हुई। अत: माता अपने अनुयायियों की रक्षा हेतु जब भी आवश्यकता होती है तब- तब प्रकट होकर तमाम राक्षसी प्रकृति से उनकी रक्षा करती हैं। 
#आवाहन_स्त्रोत:-
आवाहयाम्यहं मातृ: सकला लोकपूजिता:। सर्वकल्याणरूपिण्यो वरदा दिव्य भूषिता: ।।
 #नोंध
 मातृकाओं के पूजन क्रम में प्रथम भगवान गणेश तथा अंत में कुलदेवता की पूजा करनी चाहिए। इससे वंश, कुल, कुलाचार तथा मर्यादा की रक्षा होती है। इससे वंश नष्ट नहीं होता है और सुख, शांति तथा ऐश्वर्य की प्रप्ति होती है। 
( #हिन्दू_मान्यता)
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#क्या_ईश्वर_अजन्मा_अप्रकट_और_निराकार_है?
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1-हम सभी के माता-पिता होते हैं। प्रत्येक मनुष्य के कोई-न-कोई माता-पिता तो होते ही हैं। तो फिर भगवान के भी माता-पिता होंगे ? तो भगवान के माता-पिता कौन हैं? कभी-कभार ऐसा भी कहा जाता है कि संत भगवान से भी बड़े होते हैं। भगवान संतों को अपने से भी ज्यादा महत्त्व देते हैं। 

2-ब्रह्मा, विष्णु और महेश के संबंध में हिन्दू मानस पटल पर भ्रम की स्थिति है। वे उनको ही सर्वोत्तम और स्वयंभू मानते हैं, लेकिन क्या यह सच है? क्या ब्रह्मा, विष्णु और महेश का कोई पिता नहीं है? वेदों में लिखा है कि जो जन्मा या प्रकट है वह ईश्वर नहीं हो सकता। ईश्वर अजन्मा, अप्रकट और निराकार है। 

3-शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म ही सत्य है वही अविकारी परमेश्वर है। जिस समय सृष्टि में अंधकार था। न जल, न अग्नि और न वायु था तब वही तत्सदब्रह्म ही था जिसे श्रुति में सत् कहा गया है। 

4-सत् अर्थात अविनाशी परमात्मा। उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्तिरहित परम ब्रह्म है। 
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5-परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म। परम अक्षर ब्रह्म। वह परम ब्रह्म भगवान सदाशिव है। अर्वाचीन और प्राचीन विद्वान उन्हीं को ईश्वर कहते हैं। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धितत्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है।

6-वह शक्ति अम्बिका (पार्वती या सती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेवजननी (ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माता), नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं। पराशक्ति जगत जननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है।

7-उस कालरूपी ब्रह्म सदाशिव ने एक ही समय शक्ति के साथ 'शिवलोक' नामक क्षेत्र का निर्माण किया था। उस उत्तम क्षेत्र को 'काशी' कहते हैं। वह मोक्ष का स्थान है। यहां शक्ति और शिव अर्थात कालरूपी ब्रह्म सदाशिव और दुर्गा यहां पति और पत्नी के रूप में निवास करते हैं।
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8-इस मनोरम स्थान काशीपुरी को प्रलयकाल में भी शिव और शिवा ने अपने सान्निध्य से कभी मुक्त नहीं किया था। इस आनंदरूप वन में रमण करते हुए एक समय शिव और शिवा को यह इच्छा उत्पन्न हुई कि किसी दूसरे पुरुष की सृष्टि करनी चाहिए, जिस पर सृष्टि निर्माण (वंशवृद्धि आदि) का कार्यभार रखकर हम निर्वाण धारण करें।

9-ऐसा निश्चय करके शक्ति सहित परमेश्वररूपी शिव ने अपने वामांग पर अमृत मल दिया। फिर वहां से एक पुरुष प्रकट हुआ। शिव ने उस पुरुष से संबोधित होकर कहा, 'वत्स! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम 'विष्णु' विख्यात होगा।इस प्रकार विष्णु के माता और पिता कालरूपी सदाशिव और पराशक्ति दुर्गा हैं।

10-शिवपुराण के अनुसार ब्रह्माजी अपने पुत्र नारदजी से कहते हैं कि विष्णु को उत्पन्न करने के बाद सदाशिव और शक्ति ने पूर्ववत प्रयत्न करके मुझे (ब्रह्माजी को) अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया और तुरंत ही मुझे विष्णु के नाभि कमल में डाल दिया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) का जन्म हुआ।

11-मैंने (ब्रह्मा) उस कमल के सिवाय दूसरे किसी को अपने शरीर का जनक या पिता नहीं जाना। मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, मेरा क्या कार्य है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूं और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है? इस प्रकार में संशय में पड़ा हूं।

12-इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र इन 3 देवताओं में गुण हैं और सदाशिव गुणातीत माने गए हैं। एक बार ब्रह्मा और विष्णु दोनों में सर्वोच्चता को लेकर लड़ाई हो गई, तो बीच में कालरूपी एक स्तंभ आकर खड़ा हो गया। तब दोनों ने पूछा- 'प्रभो, सृष्टि आदि 5 कर्तव्यों के लक्षण क्या हैं? यह हम दोनों को बताइए।'
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13-तब ज्योतिर्लिंग रूप काल ने कहा- 'पुत्रो, तुम दोनों ने तपस्या करके मुझसे सृष्टि (जन्म) और स्थिति (पालन) नामक दो कृत्य प्राप्त किए हैं। इसी प्रकार मेरे विभूतिस्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम कृत्य संहार (विनाश) और तिरोभाव (अकृत्य) मुझसे प्राप्त किए हैं, परंतु अनुग्रह (कृपा करना) नामक दूसरा कोई कृत्य पा नहीं सकता। रुद्र और महेश्वर दोनों ही अपने कृत्य को भूले नहीं हैं इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है।'

14-सदाशिव कहते हैं- 'ये (रुद्र और महेश) मेरे जैसे ही वाहन रखते हैं, मेरे जैसा ही वेश धरते हैं और मेरे जैसे ही इनके पास हथियार हैं। वे रूप, वेश, वाहन, आसन और कृत्य में मेरे ही समान हैं।'
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#सदाशिव_और_ओंकार

1-कालरूपी सदाशिव कहते हैं कि मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मंत्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है, क्योंकि सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार अर्थात 'ॐ' प्रकट हुआ। ओंकार वाचक है, मैं वाच्य हूं और यह मंत्र मेरा स्वरूप ही है और यह मैं ही हूं।

2- प्रतिदिन ओंकार का स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है। मेरे पश्चिमी मुख से अकार का, उत्तरवर्ती मुख से उकार का, दक्षिणवर्ती मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से विन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। यह 5 अवयवों से युक्त (पंचभूत) ओंकार का विस्तार हुआ।

3-अब यहां 7 आत्मा हो गईं- ब्रह्म (परमेश्वर) से सदाशिव, सदाशिव से दुर्गा। सदाशिव-दुर्गा से विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, महेश्वर। इससे यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और महेश के जन्मदाता कालरूपी सदाशिव और दुर्गा हैं।

4- देवी भागवत पुराण के पहले स्कंथ में नारदजी से कहते हैं कि तुम जो पूछ रहे हो ठीक यही प्रश्न मेरे पिताजी ब्रह्मा ने देवाधिदेव श्रीहरि (विष्णु) से जो जगत के स्वामी हैं से किया था। लक्ष्मीजी उन देवाधिदेव (देवो के देव) की सेवा में रहती हैं।एक बार इन देवाधिदेव को तपस्या करते हुए देखकर ब्रह्माजी ने इनसे पूछा कि भगवन आप दो सभी देवों के देव हैं। आप सारे संसार के शासक होते हुए भी समाधि लगाए बैठे हैं? आप किस भगवान का ध्यान कर रहे हो?
5-ब्रह्माजी के विनित वचन सुनकर भगवान श्रीहरि उनसे कहने लगे- देवता, दानव और मानव सभी यह जानते हैं कि तुम सृष्टि करते हो, मैं पालन करता हूं और शंकर (रुद्र) संहार किया करते हैं। किंतु फिर भी वेद के पारगामी पुरुष अपनी युक्ति से यह सिद्ध करते हैं कि रचने, पालने और संहार करने की ये योग्यता जो हमें मिली है इसकी अधिष्ठात्री शक्तिदेवी है। 
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6-उस शक्ति के अधिन होकर ही मैं इस शेषनाग की शय्या पर सोता और सृष्टि करने का अवसर आते ही जाग जाता हूं। मैं सदा तप करने में लगा रहता हूं क्योंकि उस शक्ति के शासन से कभी मुक्त नहीं रह सकता। कभी अवसर मिलता है तो लक्ष्मी के साथ अवसर बिताने का सौभाग्य प्राप्त होता है। मैं कभी तो दानवों के साथ युद्ध करता रहता हूं और अखिल जगत को भय पहुंचाने वाले दैत्यों के विकराल शरीर को शांत करना मेरा परम कर्तव्य हो जाता है। मैं सब प्रकार से उन्हीं शक्ति के अधीन रहता हूं और उन्हीं का कार्य किया करता हूं। ब्रह्माजी मेरी जानकारी में उन भगवती शक्ति से बढ़कर दूसरे कोई देवता नहीं।

7-देवीभागवत पुराण में दुर्गाजी हिमालय को ज्ञान देते हुए कहती है कि एक सदाशिव ब्रह्म की साधना करो। जो परम प्रकाशरूप है। वही सब के प्राण और सबकी वाणी है। वही परम तत्व है। उसी अविनाशी तत्व का ध्यान करो। वह ब्रह्म ओंकारस्वरूप है और वह ब्रह्मलोक
में स्थितहै।एकाकिनी होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवशात अनेक हो जाती है। उस शक्ति की देवी ने ही लक्ष्मी, सावित्री और पार्वती के रूप में जन्म लिया और उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश से विवाह किया था। तीन रूप होकर भी वह अकेली रह गई थी। उस कालरूप सदाशिव की अर्धांगिनी है देवी दुर्गा।
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#ओंकार_का_क्या_अर्थ_है?

1-अक्षरका अर्थ जिसका कभी क्षरण न हो। ऐसे तीन अक्षरों— अ उ और म से मिलकर बना है ॐ।  "अ" का अर्थ है आर्विभाव या उत्पन्न होना, "उ" का तात्पर्य है उठना, उड़ना अर्थात् विकास, "म" का मतलब है मौन हो जाना अर्थात् "ब्रह्मलीन" हो जाना। ॐ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और पूरी सृष्टि का द्योतक है। ॐ में प्रयुक्त "अ" तो सृष्टि के जन्म की ओर इंगित करता है, वहीं "उ" उड़ने का अर्थ देता है, जिसका मतलब है "ऊर्जा" सम्पन्न होना। किसी ऊर्जावान मंदिर या तीर्थस्थल जाने पर वहाँ की अगाध ऊर्जा ग्रहण करने के बाद व्यक्ति स्वप्न में स्वयं को आकाश में उड़ता हुआ देखता है। मौन का महत्व ज्ञानियों ने बताया ही है। अंग्रजी में एक उक्ति है — "साइलेंस इज़ सिल्वर ऍण्ड ऍब्सल्यूट साइलेंस इज़ गोल्ड"। श्री गीता जी में परमेश्वर श्रीकृष्ण ने मौन के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वयं को मौन का ही पर्याय बताया है।  

 2-ओउ्म तीन शब्द 'अ' 'उ' 'म' से मिलकर बना है जो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा त्रिलोक भू ,र्भुव: स्व:( भूलोक, भुव: लोक तथा स्वर्ग लोक )का प्रतीक है।गुरु नानक जी का शब्द ''एक ओंकार सतनाम ''(एक ओंकार ही सत्य नाम है)बहुत प्रचलित तथा ''सत्य'' है।। राम, कृष्ण सब फलदायी नाम ओंकार पर निहित हैं तथा ओंकार के कारण ही इनका महत्व है। बाँकी नामों को तो हमने बनाया है परंतु ओंकार ही है जो स्वयंभू है तथा हर शब्द इससे ही बना है। हर ध्वनि में ओउ्म शब्द होता है।
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3-माना जाता है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्डसे सदा ॐ की ध्वनी निसृत होती रहती है। हमारी और आपके हर श्वास से ॐ की ही ध्वनि निकलती है। यही हमारे-आपके श्वास की गति को नियंत्रित करता है। माना गया है कि अत्यन्त पवित्र और शक्तिशाली है ॐ। किसी भी मंत्र से पहले यदि ॐ जोड़ दिया जाए तो वह पूर्णतया शुद्ध और शक्ति-सम्पन्न हो जाता है। किसी देवी-देवता, ग्रह या ईश्वर के मंत्रों के पहले ॐ लगाना आवश्यक होता है, जैसे, श्रीराम का मंत्र — ॐ रामाय नमः, विष्णु का मंत्र — ॐ विष्णवे नमः, शिव का मंत्र — ॐ नमः शिवाय, प्रसिद्ध हैं।

 4-कहा जाता है कि ॐ से रहित कोई मंत्र फलदायी नहीं होता, चाहे उसका कितना भी जाप हो। मंत्र के रूप में मात्र ॐ भी पर्याप्त है। माना जाता है कि एक बार ॐ का जाप हज़ार बार किसी मंत्र के जाप से महत्वपूर्ण है। ॐ का दूसरा नाम प्रणव (परमेश्वर) है ..अर्थात् उस परमेश्वर का वाचक प्रणव है। इस तरह प्रणव अथवा ॐ एवं ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। ॐ अक्षर है इसका क्षरण अथवा विनाश नहीं होता।

 5-ॐ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों का प्रदायक है। मात्र ॐ का जप कर कई साधकों ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर ली।श्रीमद्मागवत् में ॐ के महत्व को कई बार रेखांकित किया गया है। श्री गीता जी के आठवें अध्याय में उल्लेख मिलता है कि जो ॐ अक्षर रूपी ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ शरीर त्याग करता है, वह परम गति प्राप्त करता है।"ध्यान बिन्दुपनिषद्" के अनुसार ॐ मन्त्र की विशेषता यह है कि पवित्र या अपवित्र सभी स्थितियों में जो इसका जप करता है, उसे लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य होती है। जिस तरह कमल-पत्र पर जल नहीं ठहरता है, ठीक उसी तरह जप-कर्ता पर कोई कलुष नहीं लगता।
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 6-सनातन धर्म ही नहीं, भारत के अन्य धर्म-दर्शनों में भी ॐ को महत्व प्राप्त है। बौद्ध-दर्शन में "मणिपद्मेहुम" का प्रयोग जप एवं उपासना के लिए प्रचुरता से होता है। इस मंत्र के अनुसार ॐ को "मणिपुर" चक्र में अवस्थित माना जाता है। यह चक्र दस दल वाले कमल के समान है। जैन दर्शन में भी ॐ के महत्व को दर्शाया गया है। महात्मा कबीर र्निगुण सन्त एवं कवि थे। उन्होंने भी ॐ के महत्व को स्वीकारा और इस पर "साखियाँ" भी लिखीं —

ओ ओंकार आदि मैं जाना।
लिखि औ मेटें ताहि ना माना ॥
ओ ओंकार लिखे जो कोई।
सोई लिखि मेटणा न होई ॥

7-माण्डूक्योपनिषद् के अनुसार ;-
7-1-''प्रणव धनुष है,आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक बेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।।'' 

7-2-ॐ यह अक्षर ही सब कुछ है। यह जो कुछ भूत, भविष्यत् और वर्तमान है उसी की व्याख्या है; इसलिये यह सब ओंकार ही है। इसके सिवा जो अन्य त्रिकालातीत वस्तु है वह भी ओंकार ही है।

7-3-वह यह आत्मा ही अक्षर दृष्टि से ओंंकार है; वह मात्राओं का विषय करके स्थित है। पाद ही मात्रा है और मात्रा ही पाद है; वे मात्रा अकार, उकार और मकार हैं। 
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#ओंकार_की_महिमा 

1-ओ३म् (ॐ) या ओंकार का नामांतर प्रणव है। यह ईश्वर का वाचक है। ईश्वर के साथ ओंकार का वाच्य-वाचक-भाव संबंध नित्य है, सांकेतिक नहीं। संकेत नित्य या स्वाभाविक संबंध को प्रकट करता है। सृष्टि के आदि में सर्वप्रथम ओंकाररूपी प्रणव का ही स्फुरण होता है। तदनंतर सात करोड़ मंत्रों का आविर्भाव होता है। इन मंत्रों के वाच्य आत्मा के देवता रूप में प्रसिद्ध हैं। ये देवता माया के ऊपर विद्यमान रह कर मायिक सृष्टि का नियंत्रण करते हैं। इन में से आधे शुद्ध मायाजगत् में कार्य करते हैं और शेष आधे अशुद्ध या मलिन मायिक जगत् में। इस एक शब्द को ब्रह्मांड का सार माना जाता है ।

2-कठोपनिषद में यह भी लिखा है कि आत्मा को अधर अरणि और ओंकार को उत्तर अरणि बनाकर मंथन रूप अभ्यास करने से दिव्य ज्ञानरूप ज्योति का आविर्भाव होता है। उसके आलोक से निगूढ़ आत्मतत्व का साक्षात्कार होता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी ओंकार को एकाक्षर ब्रह्म कहा है।
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3-मांडूक्योपनिषत् में भूत, भवत् या वर्तमान और भविष्य–त्रिकाल–ओंकारात्मक ही कहा गया है। यहाँ त्रिकाल से अतीत तत्व भी ओंकार ही कहा गया है। आत्मा अक्षर की दृष्टि से ओंकार है और मात्रा की दृष्टि से अ, उ और म रूप है। चतुर्थ पाद में मात्रा नहीं है एवं वह व्यवहार से अतीत तथा प्रपंचशून्य अद्वैत है। इसका अभिप्राय यह है कि ओंकारात्मक शब्द ब्रह्म और उससे अतीत परब्रह्म दोनों ही अभिन्न तत्व हैं।वैदिक वाङमय के सदृश धर्मशास्त्र, पुराण तथा आगम साहित्य में भी ओंकार की महिमा सर्वत्र पाई जाती है। इसी प्रकार बौद्ध तथा जैन संप्रदाय में भी सर्वत्र ओंकार के प्रति श्रद्धा की अभिव्यक्ति देखी जाती है।  

4-प्रणव का बोध कराने के लिए उसका विश्लेषण आवश्यक है। यहाँ प्रसिद्ध आगमों की प्रक्रिया के अनुसार विश्लेषण क्रिया का कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है। ओंकार के अवयवों का नाम है–अ, उ, म, बिन्दु, अर्धचंद्र रोधिनी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी या महाशून्य, समना तथा उन्मना।

5-इनमें से अकार, उकार और मकार ये तीन सृष्टि, स्थिति और संहार के सपादक ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र के वाचक हैं। प्रकारांतर से ये जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण अवस्थाओं के भी वाचक हैं। बिन्दु तुरीय दशा का द्योतक है। प्लुत तथा दीर्घ मात्राओं का स्थितिकाल क्रमश: संक्षिप्त होकर अंत में एक मात्रा में पर्यवसित हो जाता है। यह ह्रस्व स्वर का उच्चारण काल माना जाता है। इसी एक मात्रा पर समग्र विश्व प्रतिष्ठित है।
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6-विक्षिप्त भूमि से एकाग्र भूमि में पहुँचने पर प्रणव की इसी एक मात्रा में स्थिति होती है। एकाग्र से निरोध अवस्था में जाने के लिए इस एम मात्रा का भी भेद कर अर्धमात्रा में प्रविष्ट हुआ जाता है। तदुपरांत क्रमश: सूक्ष्म और सूक्ष्मतर मात्राओं का भेद करना पड़ता है। बिन्दु अर्धमात्रा है। उसके अनंतर प्रत्येक स्तर में मात्राओं का विभाग है। समना भूमि में जाने के बाद मात्राएँ इतनी सूक्ष्म हो जाती हैं कि किसी योगी अथवा योगीश्वरों के लिए उसके आगे बढ़ना संभव नहीं होता, अर्थात् वहाँ की मात्रा वास्तव में अविभाज्य हो जाती है। आचार्यो का उपदेश है कि इसी स्थान में मात्राओं को समर्पित कर अमात्र भूमि में प्रवेश करना चाहिए। इसका थोड़ा सा आभास मांडूक्य उपनिषद् में मिलता है।

7-बिन्दु मन का ही रूप है। मात्राविभाग के साथ-साथ मन अधिकाधिक सूक्ष्म होता जाता है। अमात्र भूमि में मन, काल, कलना, देवता और प्रपंच, ये कुछ भी नहीं रहते। इसी को उन्मनी स्थिति कहते हैं। वहाँ स्वयंप्रकाश ब्रह्म निरंतर प्रकाशमान रहता है।

8-योगी संप्रदाय में स्वच्छंद तंत्र के अनुसार ओंकारसाधना का एक क्रम प्रचलित है। उसके अनुसार "अ" समग्र स्थूल जगत् का द्योतक है और उसके ऊपर स्थित कारणजगत् का वाचक है मकार। कारण सलिल में विधृत, स्थूल आदि तीन जगतों के प्रतीक अ, उ और म हैं। ऊर्ध्व गति के प्रभाव से शब्दमात्राओं का मकार में लय हो जाता है। तदनंतर मात्रातीत की ओर गति होती है।
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9-''म'' पर्यत गति को अनुस्वार गति कहते हैं। अनुस्वार की प्रतिष्ठा अर्धमात्रा में विसर्गरूप में होती है। इतना होने पर मात्रातीत में जाने के लिए द्वार खुल जाता है। वस्तुत: अमात्र की गति बिंदु से ही प्रारंभ हो जाती है।

10-तंत्र शास्त्र में इस प्रकार का मात्राविभाग नौ नादों की सूक्ष्म योगभूमियां के नाम से प्रसिद्ध है। इस प्रसंग में यह स्मरणीय है कि बिंदु अशेष वेद्यों के अभेद ज्ञान का ही नाम है और नाद अशेष वाचकों के विमर्शन का नाम है। इसका तात्पर्य यह है कि अ, उ और म प्रणव के इन तीन अवयवों का अतिक्रमण करने पर अर्थतत्व का अवश्य ही भेद हो जाता है। उसका कारण यह है कि यहाँ योगी को सब पदार्थो के ज्ञान के लिए सर्वज्ञत्व प्राप्त हो जाता है एवं उसके बाद बिंदुभेद करने पर वह उस ज्ञान का भी अतिक्रमण कर लेता है।

11-अर्थ और ज्ञान इन दोनों के ऊपर केवल नाद ही अवशिष्ट रहता है एवं नाद की नादांत तक की गति में नाद का भी भेद हो जाता है। उस समय केवल कला या शक्ति ही विद्यमान रहती है। जहाँ शक्ति या चित् शक्ति प्राप्त हो गई वहाँ ब्रह्म का प्रकाशमान होना स्वत: ही
सिद्ध है।इस प्रकार प्रणव के सूक्ष्म उच्चारण द्वारा विश्व का भेद होने पर विश्वातीत तक सत्ता की प्राप्ति हो जाती है। ऊर्ध्व गति में कारणों का परित्याग होते होते अखंड पूर्णतत्व में स्थिति हो जाती है।
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ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का क्या अर्थ है?

1-विज्ञान -मय कोष में तीन बंधन हैं ,जो भौतिक शरीर न रहने पर भी देव , गंधर्व ,यक्ष , भूत , पिशाच , आदि यौनियों में भी वैसे ही बंधन बंधे रहते हैं | इन्हें रूद्र [ तम ] , विष्णु [ सत ] और ब्रह्म [ रज ] ग्रंथियां कहते हैं | अर्थात तम ,रज सत द्वारा स्थूल , सूक्ष्म , और कारण शरीर बने हुऐ हैं | इन तीन ग्रंथियों से ही जीव बंधा हुआ है | इन तीनों को खोलने की जिम्मेदारी का नाम ही पितृ - ऋण ,ऋषि -ऋण व देव -ऋण कहलाता है |

2-तम को प्रकृति , रज को जीव और सत को आत्मा कहते हैं | संसार में तम को सांसारिक जीवन , रज को व्यक्तिगत जीवन व सत को आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं | देश ,जाति,  और समाज के प्रति अपने कर्त्तव्य का पालन करना पितृ -ऋण से ,पूर्व-वर्ती लोगों के उपकारों से उऋण होने का मार्ग है | व्यक्तिगत जीवन को शारीरिक ,बौद्धिक और आर्थिक शक्तियों से संपन्न बनाना , अपने को मनुष्य - सुलभ गुणों से युक्त बनाना ऋषि- ऋण से छूटना है | स्वाध्याय, सत्संग ,भक्ति ,चिंतन ,मनन ,आदि साधनाओं द्वारा काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,मद ,मत्सर आदि को हटाकर आत्मा को निर्मल ,देव-तुल्य बनाना ,यह देव -ऋण से उऋण होना है |

3-साधक को विज्ञान -मय कोष में तीनों गांठों का अनुभव होता है | प्रथम मूत्राशय के समीप [ रूद्र ] ,दूसरी आमाशय के उपर भाग में [ विष्णु ] और तीसरी सिर के मध्य केंद्र में [ब्रह्म ] ग्रंथि कहलाती है | इन्हें दूसरे शब्दों में महाकाली , महालक्ष्मी , महा-सरस्वती भी कहते हैं | प्रत्येक की दो दो सहायक ग्रन्थियाँ होती हैं | इन्हें चक्र भी कहते हैं |रूद्र की [ मूलाधार ,स्वाधिष्ठान ] , विष्णु की [ मणिपुर , अनाहत ] , ब्रह्म की [ विशुद्धि , आज्ञा ] चक्र कहा जाता है | हठ-योग की विधि से भी इन छ: चक्रों का वेधन [ छिद्रण ] किया जाता है | सिद्धों ने इन ग्रंथियों की अंदर की झांकी के अनुसार शिव , विष्णु और ब्रह्मा के चित्रों का निरूपण किया है | एक ही ग्रंथी ,दायें भाग से देखने पर पुरुष - प्रधान ,व बाएं भाग से देखने पर स्त्री -प्रधान आकार की होती है | 
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4-ब्रह्म - ग्रंथि मध्य-मस्तिष्क में है | इससे उपर सहस्रार शतदल कमल है | यह ग्रंथि उपर से चतुष्कोण [ चार कोने ] और नीचे से फ़ैली हुई है | इसका नीचे का एक तंतु ब्रह्म -रंध्र से जुडा हुआ है |इसी को सहस्रार -मुख  वाले शेषनाग की शय्या पर सोते हुए भगवान की नाभि -कमल से उत्पन्न चार मुख वाला ब्रह्मा चित्रित किया गया है | वाम भाग में यही ग्रंथि चतुर्भुजी सरस्वती है | वीणा की झंकार से ओंकार - ध्वनी का यहाँ निरंतर गुंजार होता है | यही तीन ग्रंथियां ,जीव को बाँधे हुए हैं | जब ये खुल जाती हैं ,तो मुक्ति का अधिकार अपने आप मिल जाता है | इन रत्न -राशियों के मिलते ही शक्ति , सम्पन्नता ,और प्रज्ञा का अटूट भण्डार हाथ में आ जाता है | ये शक्तियां सम - दर्शी हैं | रावण जैसे असुरों ने भी शंकरजी से वरदान पाए थे | परन्तु अनेक देवताओं को भी यह सफलता नहीं मिली | इसमें साधक का पुरुषार्थ ही प्रधान है |
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#ब्रह्मग्रंथि_विष्णुग्रंथि_तथा_रुद्रग्रंथि_का_छेदन

1-"अ" ब्रह्मा का वाचक है; उच्चारण द्वारा हृदय में उसका त्याग होता है। "उ" विष्णु का वाचक हैं; उसका त्याग कंठ में होता है तथा "म" रुद्र का वाचक है और उसका त्याग तालुमध्य में होता है। इसी प्रणाली से ब्रह्मग्रंथि, विष्णुग्रंथि तथा रुद्रग्रंथि का छेदन हो जाता है।

2-तदनंतर बिंदु है, जो स्वयं ईश्वर रूप है अर्थात् बिंदु से क्रमश: ऊपर की ओर वाच्यवाचक का भेद नहीं रहता। भ्रूमध्य में बिंदु का त्याग होता है। नाद सदाशिवरूपी है। ललाट से मूर्धा तक के स्थान में उसका त्याग करना पड़ता है। यहाँ तक का अनुभव स्थूल है।

3-इसके आगे शक्ति का व्यापिनी तथा समना भूमियों में सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। इस भूमि के वाच्य शिव हैं, जो सदाशिव से ऊपर तथा परमशिव से नीचे रहते हैं। मूर्धा के ऊपर स्पर्शनुभूति के अनंतर शक्ति का भी त्याग हो जाता है एवं उसके ऊपर व्यापिनी का भी त्याग हो जाता है। उस समय केवल मनन मात्र रूप का अनुभव होता है। यह समना भूमि का परिचय है। इसके बाद ही मनन का त्याग हो जाता है।

4-इसके उपरांत कुछ समय तक मन के अतीत विशुद्ध आत्मस्वरूप की झलक दीख पड़ती है। इसके अनंतर ही परमानुग्रह प्राप्त योगी का उन्मना शक्ति में प्रवेश होता है।इसी को

परमपद या परमशिव की प्राप्ति समझना चाहिए और इसी को एक प्रकार से उन्मना का त्याग भी माना जा सकता है। इस प्रकार ब्रह्मा से शिवपर्यन्त छह कारणों का उल्लंघन हो जाने पर अखंड परिपूर्ण सत्ता में स्थिति हो जाती है।
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#ब्रह्ममंत्र

1-ॐ सच्चिदएकम ब्रह्म ll

अथवा

2-ॐ सत्- चित् -एकम ब्रह्म ll

मंत्र

''ॐ सत् चित् एकम ब्रह्म ''..यह  ब्रह्म मंत्र ही है कुण्डलिनी जागरण का मंत्र ..

#मंत्र_का_विनियोग
विनयोग;-
ॐ अस्य ब्रह्म मंत्रस्य सदाशिवाय ऋषये नमः शिरसि ॥(सिर में ),
अनुष्टुप छंदये नमः मुखे (मुख में ) ॥ सर्वान्तयामी निर्गुण परब्रह्मण्ये देवताये नमःह्रदि (ह्रदय में ) मम सर्वाभीष्टसिध्यर्थे जपे विनयोग: ॥


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