माँशक्ति_का_हवन_विधान_एवं_मंत्र_क्या_है_हवन? ,क्या_है_गुप्त_सप्तशती_साधना? PARASHMUNI

💯✔ #मां_कामाख्या_शक्तिपीठ_और_नवद्वारों_की_साधना_का?
''कामाख्याये वरदे देवी नीलपवर्त वासिनी! त्व देवी जगत माता योनिमुद्रे नमोस्तुते!!''
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#मां_कामाख्या_शक्तिपीठ

1-भारत देश रहस्यों से भरा पड़ा है। देश में ऐसे कई रहस्यमयी मंदिर है जिनके आगे विज्ञान तक फेल हो गया है।मां कामाख्या देवी कुल 51 शक्ति पीठों में सबसे शक्तिशाली हैं, जो भारत के असम की राजधानी गुवाहाटी के पास दिसपुर में कमरू नाम के स्थान पर सदियों से स्थित है। इसका विशेष महत्व शक्ति की देवी सती मंदिर के साथ-साथ तंत्र-मंत्र सिद्धि के लिए भी है। इसके तांत्रिक महत्व के कारण यह प्राचीनकाल से एक अद्भुत तीर्थ बना हुआ है।यहां भगवती की योनि-कुंड के प्रत्येक वर्ष जून माह में तीन दिनों तक अंबूवाची योग पर्व मनाए जाने की परंपरा है।वास्तव में यह सती के राजस्वला पर्व है, जिसमें विश्व के तांत्रिकों, साधु-संतों, अघोरियों और मंत्र साधकों का जमावड़ा लगता है। ऐसी मान्यता है कि इन तीन दिनों में योनि-कुंड से रक्त प्रवाहित होता है।
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2-कामाख्या शक्तिपीठ गुवाहाटी (असम) के पश्चिम में 8 कि.मी. दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित है। माता के सभी शक्तिपीठों में से कामाख्या शक्तिपीठ को सर्वोत्तम कहा जाता है। माता सती के प्रति भगवान शिव का मोह भंग करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के मृत शरीर के 51 भाग किए थे। 

3-पौराणिक कथा में बताया गया है कि माता सती के पिता राजा दक्ष ने एक यज्ञ किया। इस यज्ञ में देवी सती के पति भगवान शिव को नहीं बुलाया गया। यह बात सती को बुरी लग गई और यज्ञ में आने पर वह अपने पति शिव का अपमान सह नहीं सकीं। इसके चलते क्रोधित होकर अग्‍निकुंड में कूदकर उन्‍होंने आत्‍मदाह कर लिया। जिसके बाद शिव जी ने सती का शव उठा कर भयंकर तांडव किया, जिससे चारों ओर हाहाकार मच उठा। इस पर भगवान विष्‍णु ने शिव के क्रोध को शांत करने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के अनेक टुकड़े कर दिए।

 4-जिस-जिस जगह पर माता सती के शरीर के अंग गिरे, वे शक्तिपीठ कहलाए। कहा जाता है कि यहां पर माता सती का गुह्वा मतलब योनि भाग गिरा था, उसी से कामाख्या महापीठ की उत्पत्ति हुई। कहा जाता है यहां देवी का योनि भाग होने की वजह से यहां माता रजस्वला होती हैं। 

 इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति नहीं है, यहां पर देवी के योनि भाग की ही पूजा की जाती है।

5-मंदिर में एक कुंड सा है, जो हमेशा फूलों से ढका रहता है।यहां पर मंदिर में चट्टान के बीच बनी आकृति देवी की योनि को दर्शाता है। जिसके पास में एक झरना मौजूद है। योनि भाग से जल धार हल्की बहती रहती है।इस जल का पान करने से हर प्रकार के रोग एवं बीमारी दूर होती है।यह पीठ माता के सभी पीठों में से महापीठ माना जाता है।
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 6-कामाख्‍या मंदिर के मुख्‍य प्रांगण में मां कामाख्‍या के साथ कुछ अन्‍य देवियों के भी मंदिर हैं। इसमें काली, तारा, सोदशी, भुवनेश्‍वरी, भैरवी, छिन्‍नमस्‍ता, धूमवती, बगलामुखी, मतंगी और कमला देवी के मंदिर शामिल हैं। ऐसा माना जाता है कि इन सभी देवियों के पास महाविद्या है। यही कारण है तांत्रिक यहां आकर अनुष्‍ठान करके हैं और सिद्धी प्राप्‍त करते हैं।

  7-यहां पर भक्तों को प्रसाद के रूप में एक गीला कपड़ा दिया जाता है, जिसे अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं।इस  वस्त्र को अम्बुबाची कहते है ;इसलिए मेले का नाम भी अम्बुबाची है।  कहा जाता है कि देवी के रजस्वला होने के दौरान प्रतिमा के आस-पास सफेद कपड़ा बिछा दिया जाता है। तीन दिन बाद जब मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं, तब वह वस्त्र माता के रज से लाल रंग से भीगा होता है। बाद में इसी वस्त्र को भक्तों में प्रसाद के रूप में बांटा जाता है।
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 8-लुप्त हो चुका है मूल मंदिर.. 

`1-कथा के अनुसार, एक समय पर नरक नाम का एक असुर था। नरक ने कामाख्या देवी के सामने विवाह करने का प्रस्ताव रखा।देवी उससे विवाह नहीं करना चाहती थी, इसलिए उन्होंने नरक के सामने एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि अगर नरक एक रात में ही इस जगह पर मार्ग, घाट, मंदिर आदि सब बनवा दे, तो देवी उससे विवाह कर लेंगी। नरक ने शर्त पूरी करने के लिए काम शुरू कर दिया। 

 2-काम पूरा होता देख देवी ने रात खत्म होने से पहले ही मुर्गे के द्वारा सुबह होने की सूचना दिलवा दी और विवाह नहीं हो पाया। आज भी पर्वत के नीचे से ऊपर जाने वाले मार्ग को नरकासुर मार्ग के नाम से जाना जाता है और जिस मंदिर में माता की मूर्ति स्थापित है, उसे कामदेव मंदिर कहा जाता है। मंदिर के संबंध में कहा जाता है कि नरकासुर के अत्याचारों से कामाख्या के दर्शन में कई परेशानियां उत्पन्न होने लगी थीं, जिस बात से क्रोधित होकर महर्षि वशिष्ठ ने इस जगह को श्राप दे दिया। 

कहा जाता है कि श्राप के कारण समय के साथ कामाख्या पीठ लुप्त हो गया। 

 3- मान्यताओं के अनुसार,  16वीं शताब्दी में कामरूप प्रदेश के राज्यों में युद्ध होने लगे, जिसमें कूचविहार रियासत के राजा विश्वसिंह जीत गए। युद्ध में विश्व सिंह के भाई खो गए थे और अपने भाई को ढूंढने के लिए वे घूमते -घूमते नीलांचल पर्वत पर पहुंच गए। 

4-वहां उन्हें एक वृद्ध महिला दिखाई दी। उस महिला ने राजा को इस जगह के महत्व और यहां कामाख्या पीठ होने के बारे में बताया। यह बात जानकर राजा ने इस जगह की खुदाई शुरु करवाई। खुदाई करने पर कामदेव का बनवाए हुए मूल मंदिर का निचला हिस्सा बाहर निकला। राजा ने उसी मंदिर के ऊपर नया मंदिर बनवाया।कहा जाता है कि 1564 में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने मंदिर को तोड़ दिया था। जिसे अगले साल राजा विश्वसिंह के पुत्र नरनारायण ने फिर से बनवाया। 
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 9-भैरव के दर्शन के बिना अधूरी है कामाख्या यात्रा.. कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है, उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं।यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में है। कहा जाता है कि इनके दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है।कामाख्या मंदिर की यात्रा को पूरा करने के लिए और अपनी सारी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए कामाख्या देवी के बाद उमानंद भैरव के दर्शन करना अनिर्वाय है। 

 10- तंत्र विद्या का सबसे बड़ा मंदिर... कामाख्‍या मंदिर तंत्र विद्या का सबसे बढ़ा केंद्र माना जाता है और हर साल जून महीने में यहां पर अंबुवासी मेला लगता है। देश के हर कोने से साधु-संत और तांत्रिक यहां पर इकट्ठे होते हैं और तंत्र साधना करते हैं। माना जाता है कि इस दौरान मां के रजस्‍वला होने का पर्व मनाया जाता है और इस समय ब्रह्मपुत्र नदी का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है। मंदिर से काफी रहस्य जुड़े हुए है। यहा हर वर्ष अपनी मनोकामना लेकर लाखों की तादात में श्रद्धालु दर्शन करने पहुंचते है। काले जादू एवं श्राप से मुक्ति भी यही पर मिलती है।

 11-कामाख्या देवी तांत्रिको के लिए सबसे महत्वपुर्ण देवी है। इसलिए यहां तांत्रिक अपनी सिद्धियां प्राप्त करने आते है। तांत्रिकों के लिए मां काली और  मां त्रिपुर सुंदरी देवी के बाद मां कामाख्या सबसे महत्वपूर्ण देवी है जो तांत्रिको को सिद्धियां प्रदान करने में सहायक है। जब तक व्यक्ति पूरी तरह तांत्रिक नहीं बनता  तब तक वो मां कामाख्या के सामने मत्था नहीं टेकता है... नहीं तो देवी नाराज हो जाती है। यहां का तांत्रिक मेला अपने आप में रहस्यमय है। इसलिए कामाख्या देवी मंदिर को सबसे शक्तिशाली मंदिर माना गया है।  
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संक्षेप में मां कामाख्‍या मंदिर की 13 खास बातें

1. गर्भ गृह में देवी की कोई तस्‍वीर या मूर्ति नहीं। 

2. तांत्रिक सिद्धि के लिए है ये बेहतर स्‍थान। 

3. देवी के 51 शक्तिपीठ में है ये शामिल।  

4. गर्भगृह में सिर्फ योनि के आकार का है पत्‍थर।  

5. मां भगवती के योनि रूप का है ये अनूठा मंदिर। 

6. दुनियाभर के तांत्रिकों का है ये पूज्‍य स्‍थान। 

7. देवी की महामुद्रा कहलाता है योनि रूप। 

8. पूरे ब्रह्मांड का माना जाता है केंद्र बिंदु। 

9. हर माह तीन दिनों के लिए बंद होता है मंदिर । 

10. मान्यता है कि कामाख्या देवी माता सती की योनि यहां गिरी थी। 

11. दस महाविद्या, काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला की पूजा भी कामाख्या मंदिर परिसर में की जाती है। 

12. पूस के महीने में यहां भगवान कामेश्वर और देवी कामेश्वरी के बीच प्रतीकात्मक शादी के रूप में पूजा की जाती है। 

13. मंदिर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा जमीन से लगभग 20 फीट नीचे एक गुफा में स्थित है।  
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#मां_कामाख्या_मंत्र_साधना

1-हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ कामाख्या सबसे शक्तिशाली पीठ है। अतः माँ को खुश करने और उनका आशीर्वाद लेने के लिए नियमित रूप से देवी कामख्या की मंत्र पढ़ना चाहिए। कामाख्या मंत्र को कल्पवृक्ष भी कहा गया है, क्योंकि यह मंत्र मन की हर मुराद को पूरा करता है। 

2-कामाख्या तंत्र में गुरु-तत्व का भी समावेश है तथा इससे ज्ञान की श्रेष्ठता का एहसास होता है। यही कारण है कि ज्ञान के लिए कामाख्या देवी की उपासना की जाती है। इसके अतिरिक्त कामख्या तंत्र से मुक्ति के चारों प्रकार सालोक्य, सारूप्य, सायुज्य और निर्वाण का सौभाग्य प्राप्त होता है। सालोक्य मुक्ति से जहां देवों के संसार में निवास का सौभग्य मिल सकता है, वहीं सारूप्य से ईश्वरत्व के अंश को प्राप्त किया जा सकता है। इसी तरह से सायुज्य देवों की कला से जुड़ना संभव होता है और निर्वाण मुक्ति अनैतिकता वाले नकारात्मक व्यक्तित्व का क्षय होता है।

3-कामाख्या मंत्र अत्यधिक शक्तिशाली माना जाता है|कामाख्या-मंत्र के जाप से शक्ति उपासना के तमाम कार्य पूरे हो जाते हैं इसलिए सभी देवी-देवताओं के उपासकों को यह पूजा अवश्य करनी चाहिए। जिस साधक ने इस मंत्र को सिद्ध कर लिया उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है|

4-मंत्र सिद्धि के विधान कठिन हैं इसलिए इसे हंसी-खेल में लेना घातक है| आत्मबल तथा सिद्धि के प्रति प्रतिबद्धता हो तभी इस ओर कदम बढ़ाना चाहिए। हर विध्न-बाधा को दूर करने के लिए इस मंत्र का जाप  करने की सलाह दी गई है।

 5-असरकारी और लोकप्रिय मंत्र

साधना के आरंभ में विनियोग, करन्यास, अंग न्यास करें| तत्पश्चात ध्यान के लिए देवी के निम्नलिखित अतुलनीय स्वरूप पर अपनी चेतना एकाग्र करें।विनियोग, ऋषादि न्यास, कर न्यास और अंग न्यास के रूप में इस प्रकार हैः-
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5-1-ऋषादि न्यास

ओम् अस्य कामाख्या मंत्रस्य श्री अक्षोभ्य ऋषिः, अनुष्टुप् छंदः, श्रीकामाख्या देवता, सर्व-सिद्धि-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगः।

5-2-मंत्र विनियोग

श्रीअक्षोभ्य-ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप्-छंदसे नमः मुखे,

श्रीकामाख्या-देवतायै नमः हृदि,सर्व-सिद्धि-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे।

5-3-ध्यान

''मां कामाख्या के रूप सामान्य देवी की तरह ही हैं। उनकी दो भुजाएं हैं और वह लाल वस्त्र धारण किए विभिन्न रत्नों से सुशोभित सिंहासन पर बैठी रहती हैं। वह तिलक और सिंदूर लगाए हुए है। उनके मुखमंडल से चंद्रमा समान निर्मलता, उज्ज्वलता और मुखाकृति कमल जैसी सुंदरता सहजता से स्पष्ट प्रस्फुटित होती है। उनकी आंखें बड़ी-बड़ी हैं और बेशकीमती हीरे-जवाहरात तथा सोने के बने आभूषण भी पहने रहती हैं।''

यह देवी समस्त विद्याओं की जानकार और सर्वगुण संपन्न है। इस कारण इनमें मां सरस्वती और मां लक्ष्मी के रूपों के भी दर्शन किए जा सकते हैं। इन्हें त्रिनेत्रा भी कहा जाता है। इस देवी का ध्यान कर ही इन मंत्रों के जाप का लाभ मिल सकता है। कारण...मां कामाख्या मां सरस्वती और मां लक्ष्मी से युक्त देवी हैं।

5-4-कामाख्या देवी का आवाहन् और पूजा करने का मंत्र ;-

ॐ कामाख्ये काम-संपन्ने,कामेश्वरी ! हर-प्रिया।

कामनां देहि में नत्यिं, कामेश्वरि! नमोस्तुते ।।

कामदे काम-रूपस्थे, सुभगे सुर-सेविते।

करोमि दर्शनं देव्याः, सर्व-कामार्थ-सिद्धये।।

5-5-इस प्रार्थना का अर्थ इस प्रकार हैः-

हे कामाख्या देवी! आप भगवान शिव की प्रिय हैं और  कामना पूरी करने वाली कामना की अधिष्ठत्री हैं। आपसे सदा शुभकामनाओं की अपेक्षा रखता हूं। मेरी कामनाओं को सिद्ध करें। हे कामना को पूर्ण करने वाली देवी! आप सभी कामना देने वाली सुंदरी और देवगणों से सेविता देवि हैं। मैं सभी कामनाओं की सिद्धि के लिए आपके दर्शन करता हूं।
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 6-कामाख्या देवी का सर्वाधिकमहत्वपूर्ण मंत्र

कामाख्या देवी का एक महत्वपूर्ण मंत्र 22 अक्षरों का है, जिसे कामाख्या तंत्र कहा जाता है।यह मंत्र अत्यंत शक्तिशाली माना गया है| इसकी सिद्धि से समस्त लौकिक अभीष्ट सिद्ध होते हैं| जाप से पूर्व किसी योग्य  से विमर्श अवश्य करें तथा उसी की सलाह से जाप की संख्या का संकल्प लें|साधना के आरंभ में विनियोग, करन्यास, अंग न्यास करें|

 6-1-तत्पश्चात ध्यान के लिए देवी के निम्नलिखित अतुलनीय स्वरूप पर अपनी चेतना एकाग्र करें –

''रक्ताभ वस्त्रधारिणी देवी कामाख्या, द्विभुजी हैं जिनके मस्तक पर सिंदूर का तिलक शोभा दे रहा है| वह चन्द्रमा के समान उज्जवल तथा कमल जैसी सुंदर हैं| उनके तन पर रत्न जड़ित आभूषण शोभित है| वह मणि-माणिक्य जटित सिंहासन पर आरूढ़ हैं| उन्नत पयोधर वाली देवी कामाख्या मंद-मंद मुस्कुरा रही हैं| श्यामवर्णा देवी सुंदर नेत्रों वाली त्रिनेत्रा हैं| वह अनेक विद्याओं से घिरी हुई हैं| उनके निकट डाकिनी-शाकिनी करबद्ध हैं| हाथों में ताम्बूल लिए नायिकाएँ खड़ी हैं| सिंहों के झुंड देवी कामाख्या  की वंदना कर रहे हैं| देवी के अमृत समान वचनों को सुनने के लिए देवी सरस्वती तथा लक्ष्मी भी उत्सुक रहतीं हैं| तीनों लोकों में पूजिता देवी कामाख्या करुणामयी तथा मंगलकारिणी हैं''|
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 6-2-वह मंत्र हैः-

''ॐ त्रीं, त्रीं, त्रीं, हूं, हूं स्त्रीं ,स्त्रीं कामाख्ये प्रसीद स्त्रीं, स्त्रीं हूं, हूं ,त्रीं, त्रीं, त्रीं स्वाहा!!''

6-3-इस मंत्र के जाप से महापाप को खत्म किया जा सकता है तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी की प्राप्ति संभव है। इनका मूल शक्ति है। तीन त्र-अक्षर वाले इस मंत्र का जाप करने वाला साधक मंत्रोच्चारण में पूरी तन्मयता के साथ रम जाता है और देवी में ध्यानमग्न होकर साक्षात देवी-स्वरूप बन जाता है।

 7-सफलता के लिये कामाख्या साधना;-
साधना मार्ग में मार्गदर्शन का आभाव हो रहा हो या तंत्र क्षेत्र मे सफलता नहीं मिल रही हो तब करे ये कामाख्या साधना।इस साधना में भगवती कामाख्या देवी की कृपा से आपके मार्ग स्वतः खुलते जायेंगे ।साधना तीन दिवसीय है,किसी भी कृष्ण पक्ष की नवमी की रात्रि 11 के बाद आप पूर्व मुख होकर बैठे। सामने लाल वस्त्र पर माँ का कोई भी चित्र रखे,और माँ के चरणों में एक नारियल स्थापित करे...जो की सिंदूर से रंजित हो। 
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 7-1-सिंदूर आपको तिल के तेल में मिलाना है और नारियल पानी वाला तथा जटायुक्त होना आवश्यक है। पंचोपचार विधि से पूजन करें| प्रसाद अर्पित करें| इसके बाद विधिवत हाथ में जल लेकर जाप के लिए संकल्प लें तथा  इसके बाद मूंगा माला से निम्न बीज मंत्र की  51 माला 3 दिन तक करे। बीज मंत्र होने के कारण ज्यादा समय नहीं लगेगा फिर भी आप चाहे तो थोडा आराम लेकर भी जाप कर सकते है ...

  7-2-बीज मंत्र पूरे मंत्र का एक छोटा रूप होता है जैसे की एक बीज बोने से पेड़ निकलता है उसी प्रकार बीज मंत्र का जाप करने से हर प्रकार की समस्या का समाधान हो जाता हैं।  मूल बीज मंत्र "ॐ" होता है जिसे आगे कई अलग बीज में बांटा जाता है- योग बीज, तेजो बीज, शांति बीज, रक्षा बीज।
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  7-3-कामाख्या  साधना बीज मंत्र :-

''ॐ त्रीं नमः''

 7-4-जिस साधक ने इस मंत्र को सिद्ध कर लिया उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है|आपको माँ कामाख्या स्वस्थ, धनी और समृद्ध बनाती है और जीवन से सारी बुराई दूर रखती है।आपको ये सामान्य प्रयोग लगे किन्तु ये प्रयोग माँ कामख्या का है अतः इसे श्रद्धा और विश्वास के साथ ही करे। अगले दिन सुबह नारियल सम्मान के साथ जल प्रवाह कर दीजिये।स्मरण रहे की नारियल फेकना नहीं है सम्मान के साथ पानी में विसर्जित करे।

#क्या_है_बीज_मंत्र_के_लाभ?

बीज मंत्र हमें हर प्रकार की बीमारी, किसी भी प्रकार के भय, किसी भी प्रकार की चिंता और हर तरह की मोह-माया से मुक्त करता हैं। अगर हम किसी प्रकार की बाधा हेतु, बाधा शांति हेतु, विपत्ति विनाश हेतु, भय या पाप से मुक्त होना चाहते है तो बीज मंत्र का जाप करना चाहिए। 

मूल बीज मंत्र;-
मूल बीज मंत्र "ॐ" होता है जिसे आगे कई अलग बीज में बांटा जाता है- योग बीज, तेजो बीज, शांति बीज, रक्षा बीज.अलग- अलग भगवान का बीज मंत्र जपने से इंसान में ऊर्जा का प्रवाह होता हैं और आप भगवान की छत्र-छाया में रहते हैं। 
ये सब बीज इस प्रकार जपे जाते हैं- ॐ, क्रीं, श्रीं, ह्रौं, ह्रीं, ऐं, गं, फ्रौं, दं, भ्रं, धूं,हलीं, त्रीं,क्ष्रौं, धं,हं,रां, यं, क्षं, तं। 
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1.देव बीज मंत्र;-
देव बीज मंत्र का उच्चारण करने से सभी देवताओं के दिव्य आशीर्वाद की प्राप्ति होती हैं। 

2.दुर्गा बीज मंत्र;-
दुर्गा बीज मंत्र का उच्चारण करने से दुर्गा माँ ज़िदगी में आई हर रुकावट पर विजय हासिल करने में मदद करती हैं। 

3.भार्गव बीज मंत्र;-
भार्गव बीज मंत्र का उच्चारण करने से अगर हम सभी दिव्य शक्तियों से अपनी ज़िंदगी की सुरक्षा के लिए आशीर्वाद मांगे तो हम पूरे संसार में सुरक्षित रह सकते हैं। 

4.काली माता बीज मंत्र;-
"क्रीं, मंत्र शक्ति या काली माता का रूप होता हैं। सभी प्रमुख तत्वों जैसे आग, जल, धरती, वायु और आकाश पर विजय पाने के काली माता बीज मंत्र सबसे ज्यादा प्रभावशाली होता हैं. सभी शत्रुओं का नाश करने में भी ये मंत्र सफल होता हैं। 

5.नरसिंहा बीज मंत्र;-
नरसिंहा बीज मंत्र हमें मोह-माया के बंधनों से मुक्ति दिलवाता हैं। इस मंत्र के उच्चारण से गहरी मानसिक शांति भी पाई जा सकती हैं। 
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 #क्या_अर्थ_है_नवद्वारों_की_साधना_का?

1-प्रत्येक वर्ष के चैत्र तथा आश्विन मास में होने वाले नवरात्र को विशेष और सघन साधनाओं के लिए उपयुक्त माना जाता है। इन अठारह दिनों में साधक विशिष्ट अनुष्ठानों से इहलोक तथा परलोक को सुधारने का प्रयास करते हैं। ऐसा माना जाता है कि चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के बाद मनुष्य योनि में जन्म मिलता है।चौरासी लाख योनियों में मनुष्य अपने पूर्व कर्मों का फल भोगता है , लेकिन सिर्फ मनुष्य योनि ही एक ऐसी योनि है जो भोग योनि के साथ-साथ कर्म योनि भी है।

2- यद्यपि मनुष्य जीवन की अवधि इन सब योनियों की सम्मिलित अवधि के सामने एक क्षण के समान है , परन्तु इस योनि की विशेषता यह है कि इसमें जो कुछ भी कर्मफल की आसक्ति को छोड़कर किया जाता है , वह मनुष्य को सदा के लिए जन्म-मरण से मुक्त कर देता है। लेकिन उसके लिए साधना की आवश्यकता होती है। इस साधना के पथ पर मनुष्य को चलने के लिए शरीर रूपी साधन की आवश्यकता होती है , जिसमें नौ द्वार हैं।

3-इसीलिए कहा गया है- ' रंग महल के दस दरवाजे , कौन सी खिड़की खुली थी सैंया निकस गए , मैं ना लड़ी थी! ' ये नौ द्वार हैं- दो चक्षु द्वार , दो नसिका द्वारा , दो श्रोत द्वार , मुख , वायु व उपस्थ द्वार। इस शरीर से देवत्व भी प्राप्त किया जा सकता है और असुरत्व भी , इसी से स्वर्ग को जाया जा सकता है और इसी के द्वारा नरक भी , यही सन्मार्ग की ओर ले जाता है और यही कुमार्ग पर।
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 4-इंद्रियों की साधना हमें ऊर्ध्वगामी बना देती है और इनका अनियंत्रण हमें अधोगामी बना देता है। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है- जैसे कछुआ आवश्यकता पड़ने पर अपने अंगों को समेट लेता है , वैसे ही जब पुरुष अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।

5-अगर प्रात:काल ब्रह्मामुहूर्त में उठकर 20 मिनट तक ओम् की साधना नादपूर्वक की जाए तो वायु व उपस्थ के स्थानों पर जो मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्र हैं , उन पर आघात होता है जो मनुष्य की कुंडलिनी को जागृत करने में सहायक होता है। तीसरा द्वार है- मुख जिसमें हमारी जिह्वा विराजमान है। विभिन्न प्रकार के स्वादों की ओर तो यह मनुष्य को खींचती ही है , लेकिन अत्यधिक वाचालता , प्रलाप , चुगली , निंदा यह भी इसी के कृत्य हैं। इसकी साधना मनुष्य अधिक से अधिक मौन रह कर कर सकता है।

 6-अनुलोम-विलोम प्राणायामों के द्वारा नासिका के दोनों द्वार शुद्ध होकर इड़ा , पिंगला तथा सुषुम्ना नाडि़यों की शुद्धि में सहायक होते हैं। अपने कानों को अगर साधक बंद करके उस नाद को सुने , जिसे कबीर ने अनहद नाद की संज्ञा दी है और जिसे कुंडलिनी की आवाज भी कहा जाता है , तो हमारे श्रोत्र द्वार भी नियंत्रित हो सकते हैं। अपने नेत्रों के द्वारा साधक भगवान के श्रीविग्रहों का दर्शन कर सकता है और आंखें बंद करके अपने आंतरिक नेत्रों से उस ज्योति के दर्शन कर सकता है जो हमारे हृदय में विराजमान है और जिसे परम ज्योति कहा जाता है।
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7-पुराणों के अनुसार लक्ष्मीजी का कहना है कि ' जो मनुष्य पवित्र , इंदिय से संयमी , निर्मल , अतिथि की सेवा करने वाला तथा उचित आहार करने वाला है , उसी के पास मेरा निवास है। जो मनुष्य जीवों का हितैषी , क्षमाशील , क्रोधरहित और अपने तथा पराए को सुख पहुंचाने वाला है , उसी के पास मेरा निवास है। ' आशय यही है कि शरीर के ये नौ द्वार ही हमारे उत्थान व पतन के कारण हैं।
8-अगर हम इंद्रिय रूपी घोड़ों की लगाम मन के हाथों सौंप देंगे तो ये कभी शांति से नहीं रहने देंगी , लेकिन अगर इनकी लगाम बुद्धिरूपी सारथी को दे दी जाए तो हम क्या नहीं प्राप्त कर सकते। हमारे लिए सब कुछ सुलभ है। इस शरीर रूपी महल के नौ दरवाजों की साधना हमें परमात्मा के दर्शन करा सकती है , महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त करा सकती है। नवरात्रों में इन्हीं की साधना की जाती है।
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💯✔ #माँशक्ति_का_हवन_विधान_एवं_मंत्र_क्या_है_हवन?
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1-हवन अथवा यज्ञ भारतीय परंपरा अथवा हिंदू धर्म में शुद्धीकरण का एक कर्मकांड है। कुण्ड में अग्नि के माध्यम से ईश्वर की उपासना करने की प्रक्रिया को यज्ञ कहते हैं। हवि, हव्य अथवा हविष्य वह पदार्थ हैं जिनकी अग्नि में आहुति दी जाती है (जो अग्नि में डाले जाते हैं)। वायु प्रदूषण को कम करने के लिए भारत देश में विद्वान लोग यज्ञ किया करते थे और तब हमारे देश में कई तरह के रोग नहीं होते थे। शुभकामना, स्वास्थ्य एवं समृद्धि इत्यादि के लिए भी हवन किया जाता है।वास्तव में, अग्नि किसी भी पदार्थ के गुणों को कई गुना बढ़ा देती है ।  
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2-#हवन_कुंड

1-हवन कुंड का अर्थ है हवन की अग्नि का निवास-स्थान।लेकिन आजकल हवन की वेदी तैयार भी मिलती है।प्राचीन काल में कुण्ड चौकोर खोदे जाते थे, उनकी लम्बाई, चौड़ाई समान होती थी। यह इसलिए था कि उन दिनों भरपूर समिधाएँ प्रयुक्त होती थीं, घी और सामग्री भी बहुत-बहुत होमी जाती थी, फलस्वरूप अग्नि की प्रचण्डता भी अधिक रहती थी। उसे नियंत्रण में रखने के लिए भूमि के भीतर अधिक जगह रहना आवश्यक था। उस स्थिति में चौकोर कुण्ड ही उपयुक्त थे।

2-पर आज समिधा, घी, सामग्री सभी में अत्यधिक मँहगाई के कारण किफायत करनी पड़ती है। ऐसी दशा में चौकोर कुण्डों में थोड़ी ही अग्नि जल पाती है और वह ऊपर अच्छी तरह दिखाई भी नहीं पड़ती।अतएव आज की स्थिति में कुण्ड इस प्रकार बनने चाहिए कि बाहर से चौकोर रहें, लम्बाई, चौड़ाई गहराई समान हो। पर उन्हें भीतर तिरछा बनाया जाय। लम्बाई, चौड़ाई चौबीच-चौबीस अँगुल हो तो गहराई भी 24 अँगुल तो रखना चाहिये पर उसमें तिरछापन इस तरह देना चाहिये कि पेंदा छः-छः अँगुल लम्बा चौड़ा रह जाय।

3-इस प्रकार के बने हुए कुण्ड समिधाओं से प्रज्ज्वलित रहते हैं, उनमें अग्नि बुझती नहीं। थोड़ी सामग्री से ही कुण्ड ऊपर तक भर जाता है और अग्निदेव के दर्शन सभी को आसानी से होने

लगते हैं।पचास अथवा सौ आहुति देनी हो तो  1 फुट 3 इंच  कुण्ड  , एक हजार आहुति में 1 फुट 6 इंच का, एक लक्ष आहुति में   6 फुट , दस लक्ष आहुति में  9 फुट का तथा कोटि आहुति में   12 फुट  का कुण्ड बनाना चाहिये। भविष्योत्तर पुराण में पचास आहुति के लिये मुष्टिमात्र हवन कुंड का भी र्निदेश है।
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3-कितने हवन कुंड बनाये जायें?

कुण्डों की संख्या अधिक बनाना इसलिए आवश्यक होता है कि अधिक व्यक्तियों को कम समय में निर्धारित आहुतियाँ दे सकना सम्भव हो, एक ही कुण्ड हो तो एक बार में नौ व्यक्ति

बैठते हैं।यदि एक ही कुण्ड होता है, तो पूर्व दिशा में वेदी पर एक कलश की स्थापना होने से शेष तीन दिशाओं में ही याज्ञिक बैठते हैं। प्रत्येक दिशा में तीन व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं। यदि कुण्डों की संख्या 5 हैं तो प्रमुख कुण्ड को छोड़कर शेष 4 पर 12-12 व्यक्ति भी बिठाये जा सकते हैं।यही क्रम 9 कुण्डों की यज्ञशाला में रह सकता है। प्रमुख कुण्ड पर 9 और शेष  6 पर 12x8 अर्थात 96+ 9 =105 व्यक्ति एक बार में बैठ सकते हैं।  
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4-#समिधा

1-समिधा का अर्थ है वह लकड़ी जिसे जलाकर यज्ञ किया जाए अथवा जिसे यज्ञ में डाला जाए।  ऋतुओं के अनुसार समिधा के लिए इन वृक्षों की लकड़ी विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।

#ऋतुओं_के_अनुसार_समिधा

1-1-वसन्त ऋतु-#शमी

1-2-ग्रीष्म ऋतु-#पीपल

1-3-वर्षा ऋतु-#ढाक, #बिल्व

1-4-शरदऋतु-#पाकर या #आम

1-5-हेमन्त ऋतु-#खैर

1-6-शिशिर ऋतु-#गूलर, #बड़

2-नवग्रह(शान्ति) के लिये समिधा;-
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सूर्य की समिधा मदार की, चन्द्रमा की पलाश की, मंगल की खैर की, बुध की चिड़चिडा की, बृहस्पति की पीपल की, शुक्र की गूलर की, शनि की शमी की, राहु दूर्वा की और केतु की

कुशा की समिधा कही गई है।मदार की समिधा रोग को नाश करती है, पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली, पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली, गूलर की स्वर्ग देने वाली, शमी की पाप नाश करने वाली, दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और कुशा की समिधा सभी मनोरथ को

सिद्ध करने वाली होती है।इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा कही गई है। 

3-यह लकड़ियाँ सड़ी घुनी, गन्दे स्थानों पर पड़ी हुई, कीडे़-मकोड़ों से भरी हुई न हों, इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।
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5-#मुद्रा

1-हवन करते समय किन-किन उँगलियों का प्रयोग किया जाय, इसके सम्बन्ध में मृगी और हंसी मुद्रा को शुभ माना गया है। मृगी मुद्रा वह है जिसमें अँगूठा, मध्यमा और अनामिका उँगलियों से सामग्री होमी जाती है। हंसी मुद्रा वह है, जिसमें सबसे छोटी उँगली कनिष्ठका का उपयोग न करके शेष तीन उँगलियों तथा अँगूठे की सहायता से आहुति छोड़ी जाती है।

शान्तिकर्मों में मृगी मुद्रा, पौष्टिक कर्मों में हंसी और अभिचार कर्मों में सूकरी मुद्रा प्रयुक्त होती है।

2-अंगुलियों और अंगूठे को आपस में मिलाने से हाथ का आकार बिल्कुल सूकर की तरह हो जाता है। इसी कारण से इसको सूकरी मुद्रा भी कहा जाता है। इस मुद्रा को मारण, उच्चाटन आदि कामों के लिए किया जाता है।योग में यह बहुत ही शक्तिशाली मुद्रा मानी जाती है।

दैनिक या मासिक होम में सामान्यतः नित्य हवन सामग्री का प्रयोग किया जाता है जिसमें जौ (यव), अक्षत, घी, शहद, तिल, पंचमेवा, एवं ऋतुफलों को काटकर प्रयोग किया जाता है इनकी मात्राएं निर्धारित होती है। 

 6-विशेष;-

होम- जप आदि करते हुए, अपान वायु निकल पड़ने, हँस पड़ने, मिथ्या भाषण करने, बिल्ली, मूषक आदि के छू जाने, गाली देने और क्रोध के आ जाने पर, हृदय तथा जल का स्पर्श करना ही प्रायश्चित है।
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#हवन_के_विज्ञान_सम्मत_लाभ

1-शोध संस्थानों के ताजा शोध नतीजे बताते हैं कि हवन वातावरण को प्रदूषण मुक्त बनाने के साथ ही अच्छी सेहत के लिए जरूरी है। हवन के धुएँ से प्राण में संजीवनी शक्ति का संचार होता है। हवन के माध्यम से बीमारियों से छुटकारा पाने का जिक्र ऋग्वेद में भी है। पूजा -पाठ और हवन के दौरान उत्पन्न औषधीय धुआं हानिकारक जीवाणुओं को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करता है जिससे बीमारी फैलने की आशंका काफी हद तक कम हो जाती है।लकड़ी

और औषधीय जडी़ बूटियां जिनको आम भाषा में हवन सामग्री कहा जाता है को साथ मिलाकर जलाने से वातावरण में जहां शुद्धता आ जाती है वहीं हानिकारक जीवाणु 94 प्रतिशत तक नष्ट हो जाते हैं।

 2-हवन के धुएं का वातावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिए बंद कमरे में प्रयोग किया गया। इस प्रयोग में पांच दजर्न से ज्यादा जड़ी बूटियों के मिश्रण से तैयार हवन सामग्री का इस्तेमाल किया गया। यह हवन सामग्री गुरकुल कांगड़ी हरिद्वार संस्थान से मंगाई गयी थी। हवन के पहले और बाद में कमरे के वातावरण का व्यापक विश्लेषण और परीक्षण किया गया, जिसमें पाया गया कि हवन से उत्पन्न औषधीय धुंए से हवा में मौजूद हानिकारक जीवाणु की मात्र में 94 प्रतिशत तक की कमी आयी।इस औषधीय

धुएं का वातावरण पर असर 30 दिन तक बना रहता है और इस अवधि में जहरीले कीटाणु नहीं पनप पाते।
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3-वैज्ञानिको का कहना है कि पहले हुए प्रयोगों में यह पाया गया कि औषधीय हवन के धुएं से फसल को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक जीवाणुओं से भी निजात पाई जा सकती है। मनुष्य को दी जाने वाली तमाम तरह की दवाओं की तुलना में अगर औषधीय जड़ी बूटियां और औषधियुक्त हवन के धुएं से कई रोगों में ज्यादा फायदा होता है और इससे कुछ नुकसान नहीं होता जबकि दवाओं का कुछ न कुछ दुष्प्रभाव जरूर होता है।धुआं मनुष्य के शरीर

में सीधे असरकारी होता है और यह पद्वति दवाओं की अपेक्षा सस्ती और टिकाउ भी है।

4-हवन में अधिकतर आम की लकड़ियों का ही प्रयोग किया जाता है।और जब आम की लकड़ियों को गुड़ के साथ जलाया जाता है तो उनमें से एक लाभकारी गैस उत्पन्न होती है जिससे वातावरण में मौजूद खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणु समाप्त हो जाते हैं। इसके साथ ही वातावरण भी

शुद्ध होता है।एक  रिसर्च के मुताबिक गुड़  के जलने से भी यह गैस उत्पन्न होती है तथा यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाए और हवन के धुएं का शरीर से सम्पर्क हो तो टाइफाइड जैसे जानलेवा रोग फैलाने वाले जीवाणु खत्म हो जाते है और शरीर शुद्ध हो जाता है।हवन के साथ कोई मंत्र का जाप करने से सकारात्मक ध्वनि तरंगित होती है, शरीर में ऊर्जा का संचार होता है, अत: कोई भी मंत्र सुविधानुसार बोला जा सकता है।
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#माँ_शक्ति_हवन

1-नवरात्रि में हवन का विशेष महत्व होता है।इससे शुभता में वृद्धि होने के साथ घर और आसपास में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।हवन सामग्री में जो औषधीय सामग्री उपयोग किए जाते हैं, उनकी आहुति देने से वातावरण स्वच्छ होता है।इस कारण से अक्सर पूजा अनुष्ठान में हवन करने का विधान है। यह एक वैदिक कर्मकांड है। 

 2-आप स्वयं घर पर हवन कर सकते हैं। महानवमी से एक दिन पूर्व आपको हवन साम्रगी एकत्र करने की आवश्यकता है।हवन कुंड को एक साफ स्थान पर स्थापित कर दें। हवन सामग्री को एक बड़े पात्र में मिलाकर रख लें।
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हवन साम्रगी;-

एक सूखा नारियल या गोला, कलावा या लाल रंग का कपड़ा और एक हवन कुंड। इसके अतिरिक्त आम की लकड़ी,हवन साम्रगी का पैकेट, पंचमेवा,बेल,  गाय का घी, गुग्गल, इलायची,गुड़,सुपारी ,लौंग,कर्पूर,पान,फूल, आटा,और फल।
हवन की तैयारी ;-

जहां पर कलश स्थापना करना है वहां पर आटे से  त्रिकोण बनाएं। और

त्रिकोण के अंदर स्वास्तिक बनाएं। उसी प्रकार हवन कुंड की वेदी में आटे से  त्रिकोण बनाएं और त्रिकोण के अंदर स्वास्तिक बनाएं।इसके बाद हवन

कुंड के अंदर लकड़ी के सात खंड बनाएं। प्रत्येक खंड 4 लकड़ियों से बनेगा ।सात खंड  सात चक्रों का प्रतीक है।कलश में साढ़े 3 बार कलावा लपेटे जो कुण्डलिनी का प्रतीक है।
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पूजन एवं हवन विधि;-

1-शुध्दिकरण;-''ओम सभी वस्तुएं शुद्ध व पवित्र हो'' ऐसा तीन बार कहते हुए सभी सामग्री और  सभी लोगों पर जल छिड़क दें।

2-पांच तत्वों के प्रतीक स्वरूप पांच पदार्थों को चढ़ाते हैं। पृथ्वी के प्रतीक स्वरूप सिंदूर आदि;  जल का प्रतीक स्वरूप जल और नैवेद्य अथार्त फल, मीठा, अक्षत आदि;अग्नि का प्रतीक स्वरूप  दीपक ; वायु का प्रतीक स्वरूप धूप और आकाश का प्रतीक स्वरूप पुष्प।  

3-कलश पूजन के लिए दीपक जला लें |हाथ में अक्षत-पुष्प लेकर कलश में ‘ॐ’ वं वरुणाय नम:’ कहते हुए वरुण देवता का तथा निम्न श्लोक पढ़ते हुए तीर्थों का आवाहन करें...

गंगे च यमुने चैव गोदावरी सरस्वति |

नर्मदे सिंधु कावेरी जलेऽस्मिन सन्निधिं कुरु ||

4-तीन बार कलश में जल चढ़ा दें।कलश को तिलक करें ।अक्षत ,पुष्प, बिल्वपत्र व दूर्वा कलश के सामने चढ़ा दें।धूप व दीप दिखायें।प्रसाद चढायें।   |

5-इसी प्रकार हवन कुंड में पूजन करें।तीन बार हवन कुंड में जल चढ़ा दें;तिलक करें;अक्षत ,पुष्प, बिल्वपत्र व दूर्वा हवन कुंड में चढ़ा दें। धूप व दीप दिखायें ;प्रसाद चढायें।  
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6-संकल्प

हाथ में लिए जल को देखते हुये ऐसी भावना करें कि जैसे जल व्यापक हैं, ऐसे ही हमारा संकल्प भी व्यापक हो।संकल्प करने के पहले, मध्य में एवं अंत में भगवान विष्णु (वसुदेव) को समर्पित करने की भावना करते हुये तीन बार भगवान के ‘विष्णु’ नाम का उच्चारण करें । ‘ॐ विष्णु: विष्णु: विष्णु:’...हाथ में 1पान,1सुपारी ,2लौंग, कलावा बंधा सूखा नारियल का गोला लेकर , जल छिड़ककर संकल्प करें।

''हे परमेश्वर,हे परमेश्वरी!आज मैं ...पवित्र .... मास के कृष्ण / शुक्लपक्ष की .... तिथि को ......वार के दिन मंत्र तथा दैवी शक्तियों की वृद्धि और आसुरी शक्तियों के शमन के लिए नवार्ण मंत्र – ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्ये...|’ के हवन का संकल्प करता हूँ |आपकी कृपा से मेरा यह हवन पूर्ण हो यही आपसे प्रार्थना है''।

7-हवन करने से पहले कुंड से फल, फूल हटा दें। इसके बाद 

 हवन कुंड में आम की सूखी लकड़ी को कर्पूर की मदद से जला लें। इसके बाद अग्नि प्रज्ज्वलित हो जाए तो नीचे दिए गए मंत्रों से बारी बारी से आहुति देना शुरू करें।
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1-ओम आग्नेय नम: नम: स्वाहा>>>>> 3आहुति

2-ओम गं गणपतये नम:  स्वाहा>>>>> 3आहुति

3-ओम गौरियाय नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

4-ओम सरस्वती ब्रह्माय नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

5-ओम कमला नारायणः नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

6-ओम शक्ति शिवाय नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

7-ओम श्री गुरुवेः नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

8-ओम हनुमते नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

9-ओम भैरवाय नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

10-ओम कुल देवताय नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

11-ओम स्थान देवताय नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 

12-ओम नम: स्वाहा/ओम सत् चित एकं ब्रह्म: >>>>> 1माला कीआहुति 
13-ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं सौः सच्चिदएकम ब्रह्म: ll >>>>> 1माला कीआहुति 
14-ओम नवग्रहाय नम: स्वाहा>>>>>3आहुति 
15-ओम ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांतकारी भानु: शशि भूमि सुतो बुधश्च: गुरुश्च शुक्र शनि राहु केतव सर्वे ग्रहा शांति करा भवंतु स्वाहा >>>>>3आहुति 
16-सिद्ध कुंजिका स्तोत्र के 4 श्लोक+मंत्र+8श्लोक=13 श्लोको की >>>>>3-3आहुति
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#समापन

अब आप नारियल के गोले में कलावा या फिर लाल कपड़ा बांध दें। उस पर पूरी, खीर, पान, सुपारी, लौंग, बतासा आदि स्थापित करके हवन कुंड में उसे बीचोबीच रख दें। इसके बाद बचे हुए हवन सामग्री को समेट कर पूर्ण आहुति मंत्र का उच्चारण करें- ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते स्वाहा॥ और क्षमा प्रार्थना करके उनको हवन कुंड में डाल दें।
16-क्षमा प्रार्थना ;-
''हे परमेश्वर हे परमेश्वरी! मेरे हवन करने में, मेरे मंत्रों के उच्चारण में ,मेरी श्रद्धा में, मेरे भाव में, मेरी शुद्धता में, जो कुछ भी कमी रह गई हो.. उसके लिए हमें /मुझे क्षमा कीजिए।आपकी जय हो, आपकी जय हो आपकी जय हो''।

अंत में मां शक्ति को दक्षिणा स्वरूप रुपए अर्पित कर दें ।इस प्रकार आपका हवन संपन्न हो जाता है।
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नोंध

दसमहाविद्या के उपासक भैरव और मां के मंत्रों से आहुति देते है।उदाहरण के लिए..
दशमहाविद्या >>>भैरव/शिव के रूप  
1-मां काली>>> - महाकाल भैरव  
 2-मां तारा >>>- अक्षोभ्य भैरव  
3-मां त्रिपुरसुन्दरी>>> कामेश्वर भैरव 
4-मां भुवनेश्वरी >>> महादेव भैरव 
5-मां त्रिपुरभैरवी>>> - दक्षिणामूर्ती भैरव 
6-मां छिन्नमस्ता>>> विकराल भैरव  
7-मां धूमावती >>>- कालभैरव 
8-मां बगलामुखी>>> -मृत्युंजय भैरव 
9-मां मातंगी>>> मातंग भैरव 
10-मां कमला >>>-श्रीहरी भैरव 
__________________________________
💯✔ #जाने_यज्ञकुंड_कितने_प्रकार_के_होते_हैं ?

यज्ञ कुंड मुख्यत: आठ प्रकार के होते हैं और सभी  का प्रयोजन अलग अलग होता हैं ।

1. योनी कुंड – योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु ।

2. अर्ध चंद्राकार कुंड – परिवार मे सुख शांति हेतु । पर पतिपत्नी दोनों को एक साथ आहुति देना पड़ती हैं ।

3. त्रिकोण कुंड – शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु ।

4. वृत्त कुंड - जन कल्याण और देश मे शांति हेतु ।

5. सम अष्टास्त्र कुंड – रोग निवारण हेतु ।

6. सम षडास्त्र कुंड – शत्रुओ मे लड़ाई झगडे करवाने हेतु ।

7. चतुष् कोणा स्त्र कुंड – सर्व कार्य की सिद्धि हेतु ।

8. पदम कुंड – तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु ।
तो आप समझ ही गए होंगे की सामान्यतः हमें
चतुर्वर्ग के आकार के इस कुंड का ही प्रयोग करना हैं ।
ध्यान रखने योग्य बाते :- अब तक आपने शास्त्रीय बाते समझने का प्रयास किया यह बहुत जरुरी हैं । क्योंकि इसके बिना सरल बाते पर आप गंभीरता से विचार नही कर सकते ।

सरल विधान का यह मतलब कदापि नही की आप गंभीर बातों को ह्र्द्यगमन ना करें ।

जप के बाद कितना और कैसे हवन किया जाता हैं ? कितने लोग और किस प्रकार के लोग की
आप सहायता ले सकते हैं ?
कितना हवन किया जाना हैं ? हवन करते समय किन किन बातों का ध्यान रखना हैं ?
क्या कोई और सरल उपाय भी जिसमे हवन ही न करना पड़े ? किस दिशा की ओर मुंह करके बैठना हैं ?
किस प्रकार की अग्नि का आह्वान करना हैं ? किस प्रकार की हवन सामग्री का उपयोग करना हैं ?
दीपक कैसे और किस चीज का लगाना हैं ?
कुछ ओर आवश्यक सावधानी ? आदि बातों के साथ अब कुछ बेहद सरल बाते को अब हम देखेगे ।

जब शाष्त्रीय गूढता युक्त तथ्य हमने समंझ लिए हैं तो अब सरल बातों और किस तरह से करना हैं पर भी
कुछ विषद चर्चा की आवश्यकता हैं ।

1. कितना हवन किया जाए ?
शास्त्रीय नियम तो दसवे हिस्सा का हैं । इसका सीधा मतलब की एक अनुष्ठान मे 1,25,000 जप या 1250 माला मंत्र जप अनिवार्य हैं और इसका दशवा हिस्सा होगा 1250/10 =
125 माला हवन मतलब लगभग 12,500 आहुति । (यदि एक माला मे 108 की जगह सिर्फ100  गिनती ही माने तो) और एक आहुति मे मानलो 15 second लगे तब कुल 12,500 *
15 = 187500 second मतलब 3125 minute मतलब 52 घंटे लगभग। तो किसी एक व्यक्ति के लिए इतनी देर आहुति दे पाना क्या संभव हैं ?
2. तो क्या अन्य व्यक्ति की सहायता ली जा सकती हैं? तो इसका उतर हैं हाँ । पर वह सभी शक्ति मंत्रो से दीक्षित हो या अपने ही गुरु भाई बहिन हो तो अति उत्तम हैं । जब यह भी न संभव हो तो गुरुदेव के श्री चरणों मे अपनी असमर्थता व्यक्त कर मन ही मन उनसे आशीर्वाद लेकर घर के सदस्यों की सहायता ले सकते हैं ।

3. तो क्या कोई और उपाय नही हैं ? यदि दसवां हिस्सा संभव न हो तो शतांश हिस्सा भी हवन किया जा सकता हैं । मतलब 1250/100 = 12.5 माला मतलब लगभग 1250 आहुति = लगने वाला समय = 5/6 घंटे ।यह एक साधक के लिए
संभव हैं ।

4. पर यह भी हवन भी यदि संभव ना हो तो ? कतिपय साधक किराए के मकान में या फ्लैट में रहते हैं वहां आहुति देना भी संभव नही है तब क्या ? गुरुदेव जी ने यह भी विधान सामने रखा की साधक यदि कुल जप संख्या का एक चौथाई हिस्सा जप और कर देता है संकल्प ले कर की मैं दसवा हिस्सा हवन नही कर पा रहा हूँ । इसलिए यह मंत्र जप कर रहा हूँ तो यह भी संभव हैं । पर इस केस में शतांश जप नही चलेगा इस बात का ध्यान रखे ।

5. स्रुक स्रुव :- ये आहुति डालने के काम मे आते हैं । स्रुक 36 अंगुल लंबा और स्रुव 24 अंगुल लंबा होना चाहिए । इसका मुंह आठ अंगुल और कंठ एक अंगुल का होना चाहिए । ये दोनों स्वर्ण रजत पीपल आमपलाश की लकड़ी के बनाये जा सकते हैं ।

6। हवन किस चीज का किया जाना चाहिये ?
· शांति कर्म मे पीपल के पत्ते, गिलोय, घी का ।
· पुष्टि क्रम में बेलपत्र चमेली के पुष्प घी ।
· स्त्री प्राप्ति के लिए कमल ।
· दरिद्र्यता दूर करने के लिये दही और घी का ।
· आकर्षण कार्यों में पलाश के पुष्प या सेंधा नमक से ।
· वशीकरण मे चमेली के फूल से ।
· उच्चाटन मे कपास के बीज से ।
· मारण कार्य में धतूरे के बीज से हवन किया जाना चाहिए ।

7. दिशा क्या होना चाहिए ? साधरण रूप से
जो हवन कर रहे हैं वह कुंड के पश्चिम मे बैठे और उनका मुंह पूर्व
दिशा की ओर होना चाहिये । यह भी विशद व्याख्या चाहता है । यदि षट्कर्म किये
जा रहे हो तो ;
· शांती और पुष्टि कर्म में पूर्व दिशा की ओर हवन कर्ता का मुंह रहे ।
· आकर्षण मे उत्तर की ओर हवन कर्ता का मुंह रहे और यज्ञ कुंड वायु कोण में हो ।
· विद्वेषण मे नैऋत्य दिशा की ओर मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण में रहे ।
· उच्चाटन मे अग्नि कोण में मुंह रहे यज्ञ कुंड वायु कोण मे रहे ।
· मारण कार्यों में - दक्षिण दिशा में मुंह और दक्षिण दिशा में हवन कुंड हो ।

8. किस प्रकार के हवन कुंड का उपयोग किया जाना चाहिए ?
· शांति कार्यों मे स्वर्ण, रजत या ताबे का हवन कुंड होना चाहिए ।
· अभिचार कार्यों मे लोहे का हवन कुंड होना चाहिए।
· उच्चाटन मे मिटटी का हवन कुंड ।
· मोहन् कार्यों मे पीतल का हवन कुंड ।
· और ताबे के हवन कुंड में प्रत्येक कार्य में उपयोग किया जा सकता है ।

9. किस नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चाहिए ?
· शांति कार्यों मे वरदा नाम की अग्नि का आवाहन किया जाना चहिये ।
· पुर्णाहुति मे शतमंगल नाम की ।
· पुष्टि कार्योंमे बलद नाम की अग्नि का ।
· अभिचार कार्योंमे क्रोध नाम की अग्नि का ।
· वशीकरण मे कामद नाम की अग्नि का आहवान किया जाना चहिये

: 10. कुछ ध्यान योग बाते :-
· नीम या बबुल की लकड़ी का प्रयोग ना करें ।
· यदि शमशान मे हवन कर रहे हैं तो उसकी कोई भी चीजे अपने घर मे न लाये ।
· दीपक को बाजोट पर पहले से बनाये हुए चन्दन के त्रिकोण पर ही रखे ।
· दीपक मे या तो गाय के घी का या तिल का तेल का प्रयोग करें ।
· घी का दीपक देवता के दक्षिण भाग में और तिल का तेल का दीपक देवता के बाए ओर लगाया जाना चाहिए ।
· शुद्ध भारतीय वस्त्र पहिन कर हवन करें ।
· यज्ञ कुंड के ईशान कोण मे कलश की स्थापना करें ।
· कलश के चारो ओर स्वास्तिक का चित्र अंकित करें ।
· हवन कुंड को सजाया हुआ होना चाहिए ।

अभी उच्चस्तरीय इस विज्ञानं के
अनेको तथ्यों को आपके सामने आना
बाकी हैं । जैसे की "यज्ञ कल्प सूत्र विधान"क्या हैं ।
जिसके माध्यम से आपकी हर प्रकार की इच्छा की पूर्ति केवल मात्र यज्ञ के माध्यम से हो जाति हैं । पर यह यज्ञ कल्प विधान हैं क्या ?

यह और भी अनेको उच्चस्तरीय तथ्य जो आपको विश्वास ही नही होने देंगे की यह भी संभव हैं । इस आहुति विज्ञानं के माध्यम से आपके सामने भविष्य मे आयंगे । अभी तो मेरा उदेश्य यह हैं की इस विज्ञानं की
प्रारंभिक रूप रेखा से आप परिचित हो । तभी तो उच्चस्तर के ज्ञान की
आधार शिला रखी जा सकती हीं ।
क्योंकि कोई भी विज्ञानं क्या मात्र चार
भाव मे सम्पूर्णता से लिया जा सकता हैं ?
कभी नही । यह 108 विज्ञान मे से एक हैं ।

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💯✔ #क्या_है_गुप्त_सप्तशती_साधना?
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1-गुप्त नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ ...यह समय शाक्त (महाकाली की पूजा करने वाले) एवं शैव ( भगवान शिव की पूजा करने वाले) के लिए विशेष होता है।दुर्गा सप्‍तशती मूलत: एक जाग्रत तंत्र विज्ञान है। यानी दुर्गा सप्‍तशती के श्‍लोकों का अच्‍छा या बुरा असर निश्चित रूप से होता है और बहुत ही तीव्र गति से होता है।दुर्गा सप्‍तशती में अलग-अलग जरूरतों के अनुसार अलग-अलग श्‍लोकों को रचा गया है, जिसके अन्‍तर्गत मारण-क्रिया के लिए 90, मोहन यानी सम्‍मोहन-क्रिया के लिए 90, उच्‍चाटन-‍क्रिया के लिए 200, स्‍तंभन-‍क्रिया के लिए 200 व विद्वेषण-‍क्रिया के लिए 60-60 मंत्र है।
2-श्रीं मददेवीभागवत के अनुसार वेदों और पुराणों की रक्षा और दुष्‍टों के दलन के लिए माँ जगदंबा का अवतरण हुआ है। इसी तरह से ऋगवेद के अनुसार माँ दुर्गा ही आद्ध शक्ति है, उन्‍ही से सारे विश्‍व का संचालन होता है और उनके अलावा और कोई अविनाशी नही है।इसीलिए नवरात्रि के दौरान नव दुर्गा के नौ रूपों का ध्‍यान, उपासना व आराधना की जाती है तथा नवरात्रि के प्रत्‍येक दिन मां दुर्गा के एक-एक शक्ति रूप का पूजन किया जाता है।नवरात्रि के दौरान श्री दुर्गा सप्तशती के पाठ को अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण माना गया है। इस दुर्गा सप्‍तशती को ही शतचण्डि, नवचण्डि अथवा चण्‍डी पाठ भी कहते हैं। पूरे साल में कुल 4 बार नवरात्रि आती है, जिनमें से दो नवरात्रियों को गुप्‍त नवरात्रि के नाम से जाना जाता है।
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3-हिन्‍दु धर्म की मान्‍यतानुसार दुर्गा सप्‍तशती में कुल 700 श्लोक हैं जिनकी रचना स्‍वयं ब्रह्मा, विश्‍वामित्र और वशिष्‍ठ द्वारा की गई है और मां दुर्गा के संदर्भ में रचे गए इन 700 श्‍लोकों की वजह से ही इस ग्रंथ का नाम दुर्गा सप्‍तशती है।चूंकि दुर्गा सप्‍तशती के सभी मंत्र बहुत ही प्रभावशाली हैं, इसलिए इस ग्रंथ के मंत्रों का दुरूपयोग न हो, इस हेतु भगवान शंकर ने इस ग्रंथ को शापित कर रखा है, और जब तक इस ग्रंथ को शापोद्धार विधि का प्रयोग करते हुए शाप मुक्‍त नहीं किया जाता, तब तक इस ग्रंथ में लिखे किसी भी मंत्र तो सिद्ध यानी जाग्रत नहीं किया जा सकता और  जब तक मंत्र जाग्रत न हो, तब तक उसे मारण, सम्‍मोहन, उच्‍चाटन आदि क्रिया के लिए उपयोग में नहीं लिया जा सकता।

4-हालांकि इस ग्रंथ का नवरात्रि के दौरान सामान्‍य तरीके से पाठ करने पर पाठ का जो भी फल होता है, वो जरूर प्राप्‍त होता है, लेकिन तांत्रिक क्रियाओं के लिए पूरी विधि का पालन करते हुए ग्रंथ को शापमुक्‍त करना जरूरी है।सात सौ मन्त्रों की ‘श्री दुर्गा सप्तशती,का पाठ
करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी ‘गुप्त-सप्तशती’ का पाठ है। यह ‘गुप्त-सप्तशती’ प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से साधकों के आत्म-कल्याण केलिए अमोघ फल-प्रद है।इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है.. प्रारम्भ में ‘कुञ्जिका-स्तोत्र’, उसके बाद ‘गुप्त-सप्तशती’,तदन्तर ‘स्तवन‘ का पाठ करे।
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#सिद्ध_कुंजिका_स्तोत्र

 श्री गणेशाय नमः ।
ॐ अस्य श्रीकुञ्जिकास्तोत्रमन्त्रस्य सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीत्रिगुणात्मिका देवता, ॐ ऐं बीजं, ॐ ह्रीं शक्तिः, ॐ क्लीं कीलकम्, मम सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
शिव उवाच
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्‌।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत्‌॥1॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्‌॥2॥
कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्‌।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठमात्रेण संसिद्ध्‌येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्‌ ॥4॥
अथ मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा
॥ इति मंत्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषामर्दिनि ॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि ॥2॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणी ॥5॥
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥8॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥
इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
। इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ।
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#गुप्त_सप्तशती

ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता।
स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे।।
हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता।
हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते।। 1
ॐ हींकारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे।
खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे।।
हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे।
हं-हं हंकार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते।। 2
ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने।
घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे।।
निर्मांसे काक-जंघे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे।
हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते।। 3
ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे।
मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये।।
तेजांगे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने।
ऐंकारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते।। 4
ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे।
त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे।।
ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे।
स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते।। 5
ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङि्घ्र-घोषे।
ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे।
सर्वांगे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते।। 6
ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे।
वज्रांगे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातंग-रुढे।।
स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले।
किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते।। 7
ॐ हुँ हुँ हुंकार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे।
सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे।।
जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे।
देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते।। 8
ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा।
त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री।।
ऐं ह्रीं क्लींकार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते।। 9
हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने।
गां गीं गूं गैं षडंगे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये।।
वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे।
हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि।। 10
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#स्तवन

या देवी खड्ग-हस्ता, सकल-जन-पदा, व्यापिनी विशऽव-दुर्गा।
श्यामांगी शुक्ल-पाशाब्दि जगण-गणिता, ब्रह्म-देहार्ध-वासा।।
ज्ञानानां साधयन्ती, तिमिर-विरहिता, ज्ञान-दिव्य-प्रबोधा।
सा देवी, दिव्य-मूर्तिर्प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।। 1
ॐ हां हीं हूं वर्म-युक्ते, शव-गमन-गतिर्भीषणे भीम-वक्त्रे।
क्रां क्रीं क्रूं क्रोध-मूर्तिर्विकृत-स्तन-मुखे, रौद्र-दंष्ट्रा-कराले।।
कं कं कंकाल-धारी भ्रमप्ति, जगदिदं भक्षयन्ती ग्रसन्ती-
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।। 2
ॐ ह्रां ह्रीं हूं रुद्र-रुपे, त्रिभुवन-नमिते, पाश-हस्ते त्रि-नेत्रे।
रां रीं रुं रंगे किले किलित रवा, शूल-हस्ते प्रचण्डे।।
लां लीं लूं लम्ब-जिह्वे हसति, कह-कहा शुद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कंकाली काल-रात्रिः प्रदहतु दुरितं, मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।। 3
ॐ घ्रां घ्रीं घ्रूं घोर-रुपे घघ-घघ-घटिते घर्घराराव घोरे।
निमाँसे शुष्क-जंघे पिबति नर-वसा धूम्र-धूम्रायमाने।।
ॐ द्रां द्रीं द्रूं द्रावयन्ती, सकल-भुवि-तले, यक्ष-गन्धर्व-नागान्।
क्षां क्षीं क्षूं क्षोभयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।। 4
ॐ भ्रां भ्रीं भ्रूं भद्र-काली, हरि-हर-नमिते, रुद्र-मूर्ते विकर्णे।
चन्द्रादित्यौ च कर्णौ, शशि-मुकुट-शिरो वेष्ठितां केतु-मालाम्।।
स्त्रक्-सर्व-चोरगेन्द्रा शशि-करण-निभा तारकाः हार-कण्ठे।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।। 5
ॐ खं-खं-खं खड्ग-हस्ते, वर-कनक-निभे सूर्य-कान्ति-स्वतेजा।
विद्युज्ज्वालावलीनां, भव-निशित महा-कर्त्रिका दक्षिणेन।।
वामे हस्ते कपालं, वर-विमल-सुरा-पूरितं धारयन्ती।
सा देवी दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।। 6
ॐ हुँ हुँ फट् काल-रात्रीं पुर-सुर-मथनीं धूम्र-मारी कुमारी।
ह्रां ह्रीं ह्रूं हन्ति दुष्टान् कलित किल-किला शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भूत-प्रभूते, किल-किलित-मुखा, कीलयन्ती ग्रसन्ती।
हुंकारोच्चारयन्ती प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।। 7
ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं कपालीं परिजन-सहिता चण्डि चामुण्डा-नित्ये।
रं-रं रंकार-शब्दे शशि-कर-धवले काल-कूटे दुरन्ते।।
हुँ हुँ हुंकार-कारि सुर-गण-नमिते, काल-कारी विकारी।
त्र्यैलोक्यं वश्य-कारी, प्रदहतु दुरितं चण्ड-मुण्डे प्रचण्डे।। 8
वन्दे दण्ड-प्रचण्डा डमरु-डिमि-डिमा, घण्ट टंकार-नादे।
नृत्यन्ती ताण्डवैषा थथ-थइ विभवैर्निर्मला मन्त्र-माला।।
रुक्षौ कुक्षौ वहन्ती, खर-खरिता रवा चार्चिनि प्रेत-माला।
उच्चैस्तैश्चाट्टहासै, हह हसित रवा, चर्म-मुण्डा प्रचण्डे।। 9
ॐ त्वं ब्राह्मी त्वं च रौद्री स च शिखि-गमना त्वं च देवी कुमारी।
त्वं चक्री चक्र-हासा घुर-घुरित रवा, त्वं वराह-स्वरुपा।।
रौद्रे त्वं चर्म-मुण्डा सकल-भुवि-तले संस्थिते स्वर्ग-मार्गे।
पाताले शैल-श्रृंगे हरि-हर-नमिते देवि चण्डी नमस्ते।। 10
रक्ष त्वं मुण्ड-धारी गिरि-गुह-विवरे निर्झरे पर्वते वा।
संग्रामे शत्रु-मध्ये विश विषम-विषे संकटे कुत्सिते वा।।
व्याघ्रे चौरे च सर्पेऽप्युदधि-भुवि-तले वह्नि-मध्ये च दुर्गे।
रक्षेत् सा दिव्य-मूर्तिः प्रदहतु दुरितं मुण्ड-चण्डे प्रचण्डे।। 11
इत्येवं बीज-मन्त्रैः स्तवनमति-शिवं पातक-व्याधि-नाशनम्।
प्रत्यक्षं दिव्य-रुपं ग्रह-गण-मथनं मर्दनं शाकिनीनाम्।।
इत्येवं वेद-वेद्यं सकल-भय-हरं मन्त्र-शक्तिश्च नित्यम्।
मन्त्राणां स्तोत्रकं यः पठति स लभते प्रार्थितां मन्त्र-सिद्धिम्।। 12
चं-चं-चं चन्द्र-हासा चचम चम-चमा चातुरी चित्त-केशी।
यं-यं-यं योग-माया जननि जग-हिता योगिनी योग-रुपा।
डं-डं-डं डाकिनीनां डमरुक-सहिता दोल हिण्डोल डिम्भा।
रं-रं-रं रक्त-वस्त्रा सरसिज-नयना पातु मां देविदुर्गा।। 13 
या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता

नमस्तस्यैः नमस्तस्यैः नमस्तस्यैः नमो नमः!
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नवरात्रि में माँ के मंत्रों द्वारा भौतिक तापो से मुक्ति के उपाय

माँ दुर्गा के इन मंत्रो का जाप प्रति दिन भी कर सकते हैं। पर नवरात्र में जाप करने से शीघ्र प्रभाव देखा गया हैं।

20 मंत्र;-

1-सर्व प्रकार की बाधा मुक्ति हेतु

सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥

अर्थातः-

मनुष्य मेरे प्रसाद से सब ""बाधाओं से मुक्त"" तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा- इसमें जरा भी संदेह नहीं है।

कम से कम सवा लाख जप कर 'दशांश' हवन अवश्य करें।

किसी भी प्रकार के संकट या बाधा कि आशंका होने पर इस मंत्र का प्रयोग करें। उक्त मंत्र का श्रद्धा एवं विश्वास से जाप करने से व्यक्ति सभी प्रकार की बाधा से मुक्त होकर धन-धान्य एवं पुत्र की प्राप्ति होती हैं।
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2-बाधा शान्ति हेतु

सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥

अर्थातः-

सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।

3-विपत्ति नाश हेतु

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

अर्थातः- शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।

4-पाप नाश हेतु

हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्। सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥

अर्थातः-

देवि! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मो से रक्षा करती है।
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5-विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति हेतु

करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः।

अर्थातः- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले।

6-भय नाश हेतु

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्। पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्। त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥

अर्थातः-

सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है।

7-सर्व प्रकार के कल्याण हेतु

सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥

अर्थातः-

नारायणी! आप सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। आपको नमस्कार हैं।
व्यक्ति दु:ख, दरिद्रता और भय से परेशान हो चाहकर भी या परीश्रम के उपरांत भी सफलता प्राप्त नहीं होरही हों तो उपरोक्त मंत्र का प्रयोग करें।
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8-सुलक्षणा पत्‍‌नी की प्राप्ति हेतु

पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥

अर्थातः- मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्‍‌नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो।

9-शक्ति प्राप्ति हेतु

सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि। गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

अर्थातः- तुम सृष्टि, पालन और संहार करने वाली शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।

10-रक्षा प्राप्ति हेतु

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके। घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥

अर्थातः- देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें।

देह को सुरक्षित रखने हेतु एवं उसे किसी भी प्रकार कि चोट या हानी या किसी भी प्रकार के अस्त्र-सस्त्र से सुरक्षित रखने हेतु इस मंत्र का श्रद्धा से नियम पूर्वक जाप करें।
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11-विद्या प्राप्ति एवं मातृभाव हेतु

विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्तिः॥

अर्थातः-

देवि! विश्वकि सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे हो।

समस्त प्रकार कि विद्याओं की प्राप्ति हेतु और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये इस मंत्रका पाठ करें।

12-प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु

प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि। त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥

अर्थातः-

विश्व की पीडा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पडे हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियों की पूजनीय परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो।

13-आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति हेतु

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्। रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

अर्थातः-

मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि मेरे शत्रुओं का नाश करो।
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14-महामारी नाश हेतु

जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

अर्थातः-

जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो।

15-रोग नाश हेतु

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥

अर्थातः-

देवि! तुमहारे प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं।
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16-विश्व की रक्षा हेतु

या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी: पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥

अर्थातः-

जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये।

17-विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश हेतु

देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥

अर्थातः-

शरणागत की पीडा दूर करनेवाली देवि! हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो।

18-विश्व के पाप-ताप निवारण हेतु

देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्य:।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥

अर्थातः-

देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओं के भय से बचाओ। सम्पूर्ण जगत् का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बडे-बडे उपद्रवों को शीघ्र दूर करो।
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19-विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने हेतु

यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तु मलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥

अर्थातः-
जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें।

20-सामूहिक कल्याण हेतु

देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्शेषदेवगणशक्ति समूहमूत्र्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:॥
अर्थातः-
सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगों का कल्याण करें।
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#कैसे_करें_मंत्र_जाप

नवरात्रि के प्रतिपदा के दिन संकल्प लेकर प्रातःकाल स्नान करके पूर्व या उत्तर दिशा कि और मुख करके दुर्गा कि मूर्ति या चित्र की पंचोपचार या दक्षोपचार या "षोड्षोपचार से पूजा करें।
शुद्ध-पवित्र आसन ग्रहण कर रुद्राक्ष, स्फटिक, तुलसी या चंदन कि माला से मंत्र का जाप  11 माला जाप पूर्ण कर अपने कार्य उद्देश्य कि पूर्ति हेतु मां से प्रार्थना करें। करें।संपूर्ण नवरात्रि में जाप करने से मनोवांच्छित कामना अवश्य पूरी होती हैं।उपरोक्त मंत्र के विधि-विधान के अनुसार जाप करने से मां कि कृपा से व्यक्ति को पाप और कष्टों से छुटकारा मिलता हैं और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग सुगम होता हैं।
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💯✔ #दसमहाविद्या_मन्त्र_कुंडलिनी_और_बीज_मन्त्र
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1-दस महाविद्या के बारे में कुछ भी कहना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। सारी शक्ति एवं सारे ब्रह्मांड की मूल में हैं ये दस महाविद्या। मनुष्य जन्म से लेकर मृत्यु तक जिन जालों में उलझा रहता है और जिस सुख तथा अंतत: मोक्ष की खोज करता है, उन सभी के मूल में मूल यही दस महाविद्या हैं। दस का सबसे ज्यादा महत्व है। संसार में दस दिशाएं स्पष्ट हैं ही, इसी तरह 1 से 10 तक के बिना अंकों की गणना संभव नहीं है।ये दशों महाविद्याएं आदि शक्ति माता पार्वती की ही रूप मानी जाती हैं।अनेक रूप और उपासना विधि में भेद होते हुए भी फलतः ये एक ही हैं। इनकी साधना से दुर्लभ सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

2-दशमहाविद्या >>>भैरव/शिव के रूप >>> दशावतार>>> ग्रह

1-माँ काली>>> - महाकाल भैरव>>>- कृष्ण>>> शनि 

2-माँ तारा >>>- अक्षोभ्य भैरव >>>- रामचंद्र>>>वृहस्पति  

3-माँ त्रिपुरसुन्दरी>>> कामेश्वर भैरव >>>कल्की>>> बुध

4-माँ भुवनेश्वरी >>>महादेव भैरव >>>वराह - चंन्द्र

5-माँ त्रिपुरभैरवी>>> - दक्षिणामूर्ती भैरव>>>नरसिंहा>>>  लग्न

6-माँ छिन्नमस्ता>>> विकराल भैरव >>>परसुराम >>> राहु

7-माँ धूमावती >>>- कालभैरव>>> केतु

8-माँ बगलामुखी>>> -मृत्युंजय भैरव>>> - कूर्मा>>> मंगल

9-माँ मातंगी>>> मातंग भैरव >>> बुद्धा >>> सूर्य 

10-माँ कमला >>>-श्रीहरी भैरव>>> मत्स्या>>> शुक्र
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3-दस महाविद्या की साधना से करें ग्रहों को शांतः-
ज्योतिष शास्त्र में दस महाविद्याओं का बहुत महत्व हैं।हर ग्रह का सम्बन्ध किसी एक महाविद्या से हैं। इसलिए  जो ग्रह पीडा दे रहा हैं ग्रह सम्बन्धी महाविद्या की आराधना करने से उस ग्रह सम्वन्धी बाधाएँ दूर होते हैं। दस महाविद्या में से किसी एक की नित्य पूजा अर्चना करने से लंबे समय से चली आ रही बिमारियाँ , कलह , क्लेश , बेरोजगारी समस्या ,शनि की साढे साती , ढैया , प्रेत बाधा , बुरी नजर ,जीवन में सफलता न पा पाना आदि सभी तरह के संकट तत्काल ही समाप्त हो जाते हैं।इन माताओं की साधना से मनुष्य को अपार शक्ति और सिद्धियाँ मिलती हैं।

 4-सभी महाविद्यायें किसी न किसी ग्रह की स्वामिनी हैं।जानते हैं कौन से ग्रह के लिए कौन सी महाविद्या का आराधना करना चाहिए , जिससे हम उस ग्रह को शुभ कर सकें।अब अगर आप किसी रोग से पीडित़ हैं तो ध्यान दें कि किस महाविद्या की आराधना करनी है।
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🔯सूर्य ग्रह के लिए :- माँ मातंगी- उच्च रक्त चाप, हृदय,

🔯चन्द्रमा के लिए :-  माँ भुवनेश्वरी- ब्रेन, फेफड़े

🔯मंगल के लिए   :-  माँ बगलामुखी- स्प्लीन, लिवर, पैंक्रियाज, पाचन तंत्र

🔯बुध के लिए      :-  माँ त्रिपुरा सुन्दरी-थायराईड ग्लैंड

🔯बृहस्पति के लिए :- तारा माँ- पूर्व जन्म के कर्म फल से मुक्ति

🔯शुक्र के लिए        :- कमला माता- गर्भाशय, मूत्र जनन तंत्र

🔯शनि के लिए        :-माँ काली- हड्डियां, तंत्रिका तंत्र

🔯राहु के लिए         :-माँ छिन्नमस्तिका- पूर्व जन्म कर्मो के परिणाम, ईलाज रहित रोग

🔯केतु के लिए       :- माँ धूमावती- सन्यास, समाधि, गृह त्याग

🔯लग्न के लिए        :- माता त्रिपुरा भैरवी -कुण्डलिनी चक्रों की स्थिति
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अगर आपका लग्न कमजोर हैं ,या उस पर कोई  दुष्प्रभाव हैं तो  माता त्रिपुरा भैरवी जी

की आराधना करने पर आपका लग्न मजबूत होगा।अत: अपने ग्रह अनुसार दस महाविद्या का पूजा करने पर आपको हर तरह से शुभता प्राप्ति होगी ।
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#दसमहाविद्या_मन्त्र

1-#माँ_महाकाली_मंत्र

''ऊं ऐं ह्रीं क्लीं श्रीं ह्सौ: ऐं ह्सौ: श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं जूं क्लीं सं लं श्रीं र: अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: ऊं कं खं गं घं डं ऊं चं छं जं झं त्रं ऊं टं ठं डं ढं णं ऊं तं थं दं धं नं ऊं पं फं बं भं मं ऊं यं रं लं वं ऊं शं षं हं क्षं स्वाहा''।

विधि;-

यह महाकाली का उग्र मंत्र है। इसकी साधना विंध्याचल के अष्टभुजा पर्वत पर त्रिकोण में स्थित काली खोह में करने से शीघ्र सिद्धि होती है अथवा श्मशान में भी साधना की जा सकती है, लेकिन घर में साधना नहीं करनी चाहिए।जप संख्या 1100 है, जिन्हें 90 दिन तक अवश्य करना चाहिए।दिन में महाकाली की पंचोपचार पूजा करके यथासंभव फलाहार करते हुए निर्मलता, सावधानी, निभीर्कता पूर्वक जप करने से महाकाली सिद्धि प्रदान करती हैं।इसमें होमादि की आवश्यकता नहीं होती।यह मंत्र सार्वभौम है।

इससे सभी प्रकार के सुमंगलों तंत्रोक्त षड्कर्म की सिद्धि होती है।
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2-#माँ_तारा_मंत्र

''ऊं ह्रीं आधारशक्ति तारायै पृथ्वीयां नम: पूजयीतो असि नम:''

इस मंत्र का पुरश्चरण 32 लाख जप है।जपोपरांत होम द्रव्यों से होम करना

चाहिए।सिद्धि प्राप्ति के बाद साधक को तर्कशक्ति, शास्त्र ज्ञान, बुद्धि कौशल आदि की प्राप्ति होती है।
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3-#माँ_छिन्नमस्ता_मंत्र

''ऊं श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्र वैरोचनीये ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा''

इस मंत्र का पुरश्चरण चार लाख जप है।जप का दशांश होम पलाश या बिल्व
फलों से करना चाहिए।श्वेत कनेर पुष्पों से होम करने से रोग मुक्ति, मालती पुष्पों के होम से वाचा सिद्धि व चंपा के पुष्पों से होम करने पर सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
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4-#माँ_त्रिपुर_सुंदरी_मंत्र

मंत्र;-

''ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं एं सौ: ऊं ह्रीं श्रीं कएइलह्रीं हसकहलह्रीं सकलह्रीं सौ: एं क्लीं ह्रीं श्रीं''

विधि;-

इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप के पश्चात त्रिमधुर (घी, शहद, शक्कर) मिश्रित कनेर के पुष्पों से होम करना चाहिए।कमल पुष्पों के

होम से धन व संपदा प्राप्ति, दही के होम से उपद्रव नाश,अंगूर के होम से वांछित सिद्धि व तिल के होम से मनोभिलाषा पूर्ति व गुग्गुल के होम से दुखों का नाश होता है।कपूर के होमत्व से कवित्व शक्ति आती है
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5-#माँ_भुवनेश्वरी_मंत्र

'ॐ ह्रीं

अमावस्या को लकड़ी के पटरे पर उक्त मंत्र लिखकर गर्भवती स्त्री को दिखाने से उसे सुखद प्रसव होता है। गले तक जल में खड़े होकर, जल में ही सूर्यमंडल को देखते हुए तीन हजार बार मंत्र का जप करने वाला मनोनुकूल कन्या का वरण करता है।अभिमंत्रित अन्न का सेवन करने से लक्ष्मी की वृद्धि होती है। 
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6-#माँ_त्रिपुर_भैरवी_मंत्र

1-त्रिपुर भैरवी की उपासना से सभी बंधन दूर हो जाते हैं।त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की
देवी हैं।माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इन्हें षोडशी भी कहा जाता है। षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है।

महा त्रिपुर भैरवी देवी अपने अन्य नामो से भी प्रसिद्ध हैं और सभी सिद्ध योगिनियाँ हैं :

 1-त्रिपुर-भैरवी

 2-कौलेश भैरवी

 3-रुद्र भैरवी

 4-चैतन्य भैरवी

 5-नित्य भैरवी

 6-भद्र भैरवी

 7-श्मशान भैरवी

 8-सकल सिद्धि भैरवी

 9-संपत-प्रदा भैरवी

10-कामेश्वरी भैरवी इत्यादि ।

2-इनकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है।जल, थल और नभ में उसका वर्चस्व कायम होता है।आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।मां त्रिपुर भैरवी

तमोगुण और रजोगुण की देवी हैं।इनकी आराधना विशेष विपत्तियों को शांत करने और सुख पाने के लिए की जाती है।

3-विधि;-

इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप के पश्चात त्रिमधुर (घी, शहद, शक्कर) मिश्रित कनेर के पुष्पों से होम करना चाहिए।

माँ त्रिपुर भैरवी देवी मूल मन्त्र -  ‘ ॐ ह्रीं भैरवी क्लौं ह्रीं स्वाहा':

माँ त्रिपुर भैरवी देवी साधना मंत्र  - ''ॐ ह्रीं सर्वैश्वर्याकारिणी देव्यै नमो नम:''

 4-इनके जाप द्वारा सभी कष्ट एवं संकटों का नाश होता है तथा आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है । जीवन में काम, सौभाग्य और शारीरिक सुख के साथ आरोग्य सिद्धि के लिए इस देवी की आराधना की जाती है। इसकी साधना से धन सम्पदा की प्राप्ति होती है, मनोवांछित वर या कन्या से विवाह होता है ।
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7-#माँ_धूमावती_मंत्र

 इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप का दशांश तिल मिश्रित घृत
से होम करना चाहिए। 

मंत्र;-

''ऊं धूं धूं धूमावती स्वाहा''
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 8-#माँ_बगलामुखी_मंत्र

इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जपोपरांत चंपा के पुष्प से दशांश होम करना चाहिए। इस साधना में पीत वर्ण की महत्ता है।  

''ऊं ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिव्हां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ऊं स्वाहा''
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 9-#माँ_मातंगी_मंत्र

''ऊं ह्लीं एं श्रीं नमो भगवति उच्छिष्ट चांडालि श्रीमातंगेश्वरि सर्वजन वंशकरि स्वाहा''

इस मंत्र का पुरश्चरण दस हजार जप है।जप का दशांश शहद व महुआ के पुष्पों से होम करना चाहिए।  
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 10-#माँ_कमला_मंत्र

 इस मंत्र का दस लाख जप करें।दशांश शहद, घी व शर्करा युक्त लाल कमलों से होम करें, तो सभी कामनाएं पूर्ण होंगी।समुद्र से गिरने वाली नदी के जल में आकंठ जप करने पर सभी प्रकार की संपदा मिलती है।शहद, घी व शर्करायुक्त बिल्व फलों से दशांश होम करने से साधक के घर में लक्ष्मी वास करती है। 
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#महालक्ष्मी_मंत्र

1-''ऊं नम: कमलवासिन्यै स्वाहा''

2-''ऊं श्रीं ह्लीं श्रीं कमले कमलालयै प्रसीद प्रसीद ऊं श्रीं ह्लीं श्रीं महालक्ष्मयै नम:''

#दशमहाविद्या_और_उनके_भैरव_मंत्र

1-दशमहाविद्या मंत्र जप से पहले ''ओम गं गणपतये नम:'' का जप और फिर... इनके भैरव का दशांस जप किया जाना चाहिए। 

भैरव आराधना के विशेष मंत्र

1-1- 'ॐ कालभैरवाय नम:।'

1-2- 'ॐ भयहरणं च भैरव:।'

1-3- 'ॐ भ्रां कालभैरवाय फट्‍।'

1-4- 'ॐ हं षं नं गं कं सं खं महाकाल भैरवाय नम:।'  

1-5-'ॐ ह्रीं बटुकाय आपदुद्धारणाय कुरू कुरू बटुकाय ह्रीं।'

2-आदिशंकराचार्य ने सौन्दर्यलहरी में षोडशी श्रीविद्या की स्तुति करते हुए कहा है कि' ‘अमृत के समुद्र में एक मणिका द्वीप है, जिसमें कल्पवृक्षों की बारी है, नवरत्नों के नौ परकोटे हैं, उस वन में चिन्तामणि से निर्मित महल में ब्रह्ममय सिंहासन है, जिसमें पंचकृत्य के देवता ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और ईश्वर आसन के पाये हैं और सदाशिव फलक हैं।सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल पर विराजमान भगवती षोडशी त्रिपुरसुन्दरी का जो ध्यान करते हैं, वे धन्य हैं। भगवती के प्रभाव से उन्हें भोग और मोक्ष दोनों सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं।’' दुर्वासा इनके परम अराधक थे।इनकी उपासना श्रीचक्र में होती है। 

3-दस महाविद्या  की साधना 2 कुलों के रूप में की जाती है। श्री कुल और काली कुल।कुछ ऋषियों ने इन्हें तीन रूपों में माना है। उग्र, सौम्य और सौम्य-उग्र। उग्र में काली, छिन्नमस्ता, धूमावती और बगलामुखी है। सौम्य में त्रिपुरसुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी और महालक्ष्मी (कमला) है।तारा तथा भैरवी को उग्र तथा सौम्य दोनों माना गया हैं देवी के वैसे तो अनंत रूप है।  
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#दशमहाविद्या_के_अन्य_मंत्र

1-#माँ_भद्रकाली_मंत्र

ॐ ह्रीं ॐ भद्रकाल्यै नमः

ॐ ह्रौं काली महाकाली किलिकिले फट् स्वाहा॥ 

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिके क्लीं श्रीं ह्रीं ऐं

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#माँ_दक्षिणकाली_मंत्र

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं दक्षिणे कालिके क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥

ॐ क्रीं

ॐ क्रीं ह्रुं ह्रीं॥

ॐ क्रीं ह्रुं ह्रीं हूँ फट्॥

ॐ क्रीं कालिके स्वाहा॥

ॐ हूँ ह्रीं हूँ फट् स्वाहा॥

ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं दक्षिणकालिके क्रीं क्रीं क्रीं ह्रुं ह्रुं ह्रीं ह्रीं॥

क्रीं ह्रुं ह्रीं दक्षिणेकालिके क्रीं ह्रुं ह्रीं स्वाहा॥

ॐ ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं दक्षिणकालिके ह्रुं ह्रुं क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं स्वाहा॥

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं ह्रुं ह्रुं ह्रीं ह्रीं दक्षिणकालिके स्वाहा॥
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2-#माँ_तारा_मंत्र

ॐ त्रीं

ॐ ह्रुं स्त्रीं ह्रुं ॥

ॐ ह्रीं ह्रीं स्त्रीं ह्रुं॥

ॐ ह्रीं त्रीं ह्रुं फट्

ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट्॥

ऐं ॐ ह्रीं क्रीं ह्रुं फट्॥

ॐ त्रीं ह्रीं, ह्रुं , ह्रीं, हुं फट्॥

  ऐं स्त्रीं ॐ ऐं ह्रीं फट् स्वाहा॥
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 3-#माँ_छिन्नमस्ता_मंत्र

 ह्रुं॥

ॐ ह्रुं ॐ॥

ॐ ह्रुं स्वाहा॥ 

ॐ ह्रुं स्वाहा ॐ॥

ह्रीं क्लीं श्रीं ऐं ह्रुं  फट्॥

ॐश्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवैरोचनीयै ह्रुं ह्रुं फट् स्वाहा॥
 
ॐ वैरोचन्ये विद्महे छिन्नमस्तायै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
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4-#माँ_त्रिपुर_सुंदरी_मंत्र

ॐ ऐं सौः क्लीं॥

ॐ ऐं क्लीं सौः सौः क्लीं॥

ॐ ऐं क्लीं सौः सौः क्लीं ऐं॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिपुरामदने सर्वशुभं साधय स्वाहा॥ 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं परापरे त्रिपुरे सर्वमीप्सितं साधय स्वाहा॥

ॐ क्लीं त्रिपुरादेवि विद्महे कामेश्वरि धीमहि। तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात्॥

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#श्री_विद्या_पंचदशी

1- बाल सुंदरी- 8 वर्षीया कन्या रूप में
2- षोडशी त्रिपुर सुंदरी- 16 वर्षीया सुंदरी

3-त्रिपुर सुंदरी-युवा स्वरूप
4- ललिता त्रिपुर सुंदरी- वृद्धा रूप

#श्री_विद्या_पंचदशी_मंत्र

1-श्रीबाला-त्रिपुर-सुंदरी मंत्र:-ॐ ऐं क्लीं सौः॥

2-षोडशी त्रिपुर सुंदरी -''क ए इ ल ह्रीं ।ह स क ह ल ह्रीं।स क ल ह्रीं ''॥

3- त्रिपुर सुंदरी -''क ए इ ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं स क ल ह्रीं श्रीं''॥

4-ललिता त्रिपुर सुंदरी-''ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ ह्रीं श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं नम:।''
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5-#माँ_भुवनेश्वरी_मंत्र

ॐ ह्रीं॥ 

ॐ आं ह्रीं क्रों॥ 

ॐ आं श्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ह्रीं श्रीं क्रों॥

ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

ॐ श्रीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

ॐ श्रीं क्लीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

ॐ श्रीं ऐं क्लीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौंः भुवनेश्वर्यै नमः॥

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौंः ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौंः क्लीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥

ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं क्लीं सौंः ऐं सौंः भुवनेश्वर्यै नमः॥
 
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं सौंः क्रीं हूं ह्रीं ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः॥
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6-#माँ_त्रिपुरभैरवी_मंत्र

6-1-ॐ ह्रीं भैरवी कलौं ह्रीं स्वाहा॥

ॐ ह्स्त्रैं ह्स्क्ल्रीं ह्स्त्रौंः॥

ॐ हसैं हसकरीं हसैं॥

ॐश्मशान भैरवि नररुधिरास्थि - वसाभक्षिणि सिद्धिं मे देहि मम मनोरथान् पूरय हुं फट् स्वाहा॥

ॐ त्रिपुरायै विद्महे महाभैरव्यै धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥

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7-#माँ_धूमावती_मंत्र

ॐ धूं धूमावती स्वाहा॥

ॐ धूं धूं धूमावती स्वाहा॥

ॐ धूं धूं धूं धूमावती स्वाहा॥

ॐ धूं धूं धुर धुर धूमावती क्रों फट् स्वाहा॥ 

ॐ धूं धूमावती देवदत्त धावति स्वाहा॥

ॐ  धूं धूं धूमावती ठ: ठ:।।

ॐ धूमावत्यै विद्महे संहारिण्यै धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात्॥
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8-#माँ_बगलामुखी_मंत्र

ॐ ह्लीं॥

ॐ ह्लीं ॐ॥

ॐ आं ह्लीं क्रों॥

ॐ आं ह्लीं क्रों हुं फट् स्वाहा॥

ॐ ह्रीं क्लीं ह्रीं बगलामुखि ठः॥

ॐ ह्लीं क्लीं ह्लीं बगलामुखि ठः ठः॥

 ॐ ह्लीं बगलामुखी विद्महे दुष्टस्तंभनी धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात्॥
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9-#माँ_मातंगी_मंत्र

ॐ कामिनी रञ्जिनी स्वाहा॥

ॐ ह्रीं क्लीं हुं मातंग्यै फट् स्वाहा॥

 ॐ शुक्रप्रियायै विद्महे श्रीकामेश्वर्यै धीमहि तन्नः श्यामा प्रचोदयात्॥
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10-#माँ_कमला_मंत्र

ॐ श्रीं॥

ॐ स्ह्क्ल्रीं हं॥

ॐ श्रीं क्लीं श्रीं॥

ॐ ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं॥

ॐ श्रीं क्लीं श्रीं नमः॥

ॐ ह्रीं हुं  हां ग्रें क्षों क्रों नमः॥

ॐ नमः कमलवासिन्यै स्वाहा॥
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#पूर्ण_दशमहाविद्या_मंत्र

1-'ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौ: क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं श्रीं स्त्रीं ऐं क्रौं क्रीं इम हुं।''
2-'ॐ  श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौ: ॐ श्रीं क ए ई ल ह्रीं ह स क ह ल ह्रीं सकल ह्रीं सौ: ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ।''

दशमहाविद्या /श्रीविद्या साधना संसार की सर्वश्रेष्ठ साधनाओ मे से एक हैं।ध्यान के बिना केवल मन्त्र का जाप करना साधना नही है। इस साधना मे ध्यान का विशेष महत्व हैं।बिना ध्यान के, केवल दस प्रतिशत का ही लाभ मिल सकता है।इसलिए पहले ध्यान का अभ्यास करे व साथ-साथ जप करे,अन्त मे केवल ध्यान करें। 
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#कुंडलिनी_और_बीज_मन्त्र

1-  तन्त्र और योग में षट्चक्र और सहस्त्र (शून्य चक्र ) का वर्णन है ! पुराणों में सुमेरु पर्वत का वर्णन आता है जहा 33 या 33 कोटि देवताओ का निवास है ! मनुष्य के शरीर में मेरुदंड (रीढ़ ) गर्दन से मलद्वार तक स्थित है ! यह शरीर का आधार स्तम्भ है ! यह 33 कशेरुकाओ से बना है , इसमें नीचे से उपर क्रमश मूलाधार के पृथ्वी तत्व का बीज लं’ ;स्वाधिष्ठान के जल तत्व का 'वं ' ;मणिपूर चक्र के अग्नि  तत्व का 'रं'  ;अनाहत चक्र के वायु तत्व का 'यं' और विशुद्ध चक्र के आकाश तत्व का बीज 'हं' है !
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2-हिंदी लिपि को देवनागरी लिपि कहते है ! महेश्वर सूत्रों से इसका उदभव हुआ, ह, य, व्, र, ल, सूत्र में पंच तत्वों का संकेत है!इन सूत्रों से देवनागरी के अक्षर निकले !अक्षर का अर्थ है  ..जिसका विनाश नही होता !ये 33अक्षर है ... 
क ख ग घ ड़ च छ ज झ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न 
प फ ब भ म य र ल व श ष स ह 

3-मेरुदंड में 33 कशेरुकाओ है ! यह मेरुदंड सुमेरु पर्वत है ,  इस पर 33 देवता निवास करते है ! एक देवता की प्रतीकात्मक शक्ति है देवनागरी लिपि !इस प्रकार यह स्पस्ट हो जाता है की 33 कोटि देवता मानव शरीर में ही होते है ! मानव शरीर से बाहर के देवता एक कल्पना मात्र है ! 
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4-मूलाधार चक्र उपस्थ मूल से दो अंगुल नीचे और गुदा मूल से दो अंगुल उपर स्थित है ! इस चक्र के  नीचे त्रिकोण यंत्र जैसा एक सूक्ष्म योनी मंडल है ! इसके मध्य कोण से सुषुम्ना दक्षिण से पिंगला तथा वाम से इड़ा नाड़ी निकलती है ! सुषुम्ना  को सरस्वती इड़ा को गंगा और पिंगला को यमुना कहते है इस स्थान को मुक्त त्रिवेणी भी कहते है ! इसी स्थान पर मूल शक्ति कुण्डलिनी रहती है !
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 5-सिद्ध योग ( आगम ) में इसी स्थान पर स्वयं भू लिंग में साढ़े तिन आवर्ती में लिपटी कुण्डलिनी शक्ति को बताया गया है ! त्रिकोण मण्डल के मध्य तेजोमय रक्तवर्ण “ क्लीं “ बीज रूप कन्दर्प नाम की स्थिर वायु की स्थति बताई गयी है !मूलाधार चक्र में त्रिकोणात्मक त्रिपुर के मध्य महाशक्ति का निवास है यही त्रिपुर सुन्दरी है ..शक्ति है और पर्वत वासिनी पार्वती है! योगिक साधना द्वारा जब यह शक्ति षट्चक्र भेदन करती हुई सहस्रार चक्र में शिव से मिलती है ,तो इसे शिव -शक्ति मिलन कहते है ! मानव के लिए यही एकमात्र सत्य पूजा है ।
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