स्वाहा’ का अर्थ PARASHMUNI

💯✔ #हिंदू_शास्त्र ने ही नहीं बल्कि #विज्ञान ने भी माना, #हवन से मिलते #लाभ

#भारतीय_संस्कृति में अग्रिहोत्र कर्म प्रतिदिन करने की बौद्धिक काल से परम्परा रही है। यज्ञ, हवन के बिना कोई भी कार्य पूर्ण न मानने के पीछे इसमें निहित लाभ ही रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार फ्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की, जिसमें उन्हें पता चला कि हवन मुख्यत: आम की लकड़ी से किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो #फॉर्मिक एल्डिहाइड नामक गैस उत्पन्न होती है जो खतरनाक जीवाणुओं को मारकर वातावरण को शुद्ध करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसके बनने का तरीका पता चला। गुड़ को जलाने पर भी यह गैस उत्पन्न होती है। टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गई अपनी रिसर्च में ये पाया कि यदि आधा घंटा हवन में बैठा जाए अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टायफाइड जैसे खतरनाक रोग फैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।

#हवन की महत्ता देखते हुए राष्ट्रीय #वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर रिसर्च की। उन्होंने ग्रंथों में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलने पर पाया कि यह विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी शोध किया और देखा कि सिर्फ एक किलो आम की लकड़ी जलने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलाई गई, एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद जीवाणुओं का स्तर 14 प्रतिशत कम हो गया।

यही नहीं, उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजूद #जीवाणुओं का परीक्षण किया और पाया कि कक्ष के दरवाजे खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के 24 घंटे बाद भी जीवाणुओं का स्तर सामान्य से 96 प्रतिशत कम था।  बार-बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि इस बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था। रिपोर्ट में लिखा गया कि हवन द्वारा न सिर्फ मनुष्य बल्कि वनस्पतियों, फसलों को नुक्सान पहुंचाने वाले जीवाणुओं का नाश होता है जिससे फसलों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो सकता है।

क्या हो #हवन की #समिधा (जलने वाली लकड़ी): समिधा के रूप में आम की लकड़ी सर्वमान्य है परन्तु अन्य समिधाएं भी विभिन्न कार्यों के लिए प्रयुक्त होती हैं। सूर्य की सीमा मदार की, चंद्रमा की #पलाश की, मंगल की #खैर की, बुध की #चिड़चिड़ा की,  बृहस्पति की #पीपल की, शुक्र की #गलूर की, शनि की #शमी की, राहू की #दूर्वा की और केतु की #कुशा की समिधा कही गई है। मदार की समिधा रोग का नाश करती है, पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली, पीपल की प्रजा (सन्तति) का काम कराने वाली, गूलर की स्वर्ग देने वाली, शमी की पाप नाश करने वाली, दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है।

हव्य (आहुति देने योग्य द्रवों) के प्रकार: प्रत्येक ऋतु में आकाश में भिन्न-भिन्न प्रकार के वातावरण रहते हैं। सर्दी, गर्मी, नमी, वायु का भारीपन, हल्कापन, धूल, धुआं, बर्फ आदि का भरा होना। विभिन्न प्रकार के कीटाणुओं की उत्पत्ति, वृद्धि एवं समाप्ति का क्रम चलता रहता है इसलिए कई बार वायुमंडल स्वास्थ्यकर होता है। कई बार अस्वास्थ्यकर हो जाता है। इस प्रकार की विकृतियों को दूर करने और अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए हवन में ऐसी औषधियां प्रयुक्त की जाती हैं जो इस उद्देश्य को भली प्रकार पूरा कर सकती हैं।

#होम द्रव्य: होम द्रव्य अथवा #हवन सामग्री वह जल सकने वाला पदार्थ है जिसे यज्ञ (हवन/होम) की अग्रि में मंत्रों के साथ डाला जाता है।

#सुगंधित: केसर, अगर, तगर, चंदन, इलायची, जायफल, जावित्री, छड़ीला, कपूर, कचरी, बालछड़, पानड़ी आदि।

#पुष्टिकारक: घृत, गुग्गल, सूखे फल, जौ, तिल, चावल, शहद, नारियल आदि।

#मिष्ट: शक्कर, छुहारा, दाख आदि।

#रोग नाशक: #गिलोय, #जायफल, #सोमवल्ली, #ब्राह्मी, तुलसी, अगर तगर तिल, इंद्र जौ, #आंवला, #मालकांगनी, हरताल, #तेजपत्र, प्रियंगु केसर, सफेद चंदन, #जटामांसी आदि। उपरोक्त चारों प्रकार की वस्तुएं हवन में प्रयोग होनी चाहिएं।

#अन्न के हवन में मेघ-#मालाएं अधिक अन्न उपजाने वाली वर्षा करती हैं। सुगंधित द्रव्यों से विचार शुद्ध होते हैं। मिष्ट पदार्थ स्वास्थ्य को पुष्ट एवं शरीर को #आरोग्य प्रदान करते हैं इसलिए चारों प्रकार के पदार्थों को समान महत्व देना चाहिए। यदि अन्य वस्तुएं उपलब्ध न हों तो जो मिले उसी से या केवल तिल, जौ, चावल से भी काम चल सकता है।
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💯✔ ‘स्वाहा’ का अर्थ है त्याग और समर्पण भाव से प्रदान करना| स्वाहा के उच्चारण से अहंकार/अभिमान समाप्त होता है| अतः चहिये| स्वाहा शब्द के अनेक अर्थ हैं| वैदिक विद्वानों के अनुसार सु+आह=स्वाहा=(१) सुमधुर बोलो| (२) सत्य बोलो और अपनाओ| (३) जो मन में है, वही वाणी से बोलो और अपने कहे अनुसार कर्म करो अर्थात् मन-वचन-कर्म में कोई अन्तर न हो| (४) जो कर्म करो समर्पण भावना से करो| (५) त्यागपूर्वक कर्म करो| (६) स्वाहा का अर्थ होता है-काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, राग-द्वेष, मन-अपमान, चुगली, अहंकार, बदले की भावना इत्यादि जैसे अपने अन्दर छुपी हुई बुराइयों को आहुत करना| शुध्द घी तथा सामग्री की आहुतियाँ मन्त्रोच्चारण के अंत में ‘स्वाहा’ उच्चारण के साथ यज्ञ कुण्ड के मध्य में प्रज्वलित अग्नि के ऊपर ही ठीक प्रकार से प्रदान करनी चहिये जिससे घी या सामग्री यज्ञ कुण्ड के बाहर न गिरने पाये| यह यज्ञ की एक विशेष आचार-संहिता है-‘पहले मंत्र पाठ तदनन्तर क्रिय’ और इस अनुशासन का पालन यज्ञ में भाग ले रहे, यज्ञवेदी पर बैठे, सभी सदस्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिये| मंत्रोच्चारण के पश्चात् ‘स्वाहा’ के साथ ही यज्ञकुंड में अग्नि में शुध्द घृत तथा सामग्री की आहुति प्रदान करनी चाहिये| (शतपथब्राह्राण: १.५.३.१३, ३.३.२.7) ‘स्वाहा यज्ञं कृणोत्न’ (ऋग्वेद: १.१३.१२) इस मन्त्रांश में भी वही आदेश है कि ‘मंत्रोच्चारण के पश्चात् ही ‘स्वाहा’ उच्चारण के साथ ही आहुति प्रदान करने की क्रिया करनी चाहिये|’ प्रत्येक मनुष्य को कम से कम सोलह आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिए और अधिक आहुतियाँ देने की इच्छा हो तो ‘ॐ विश्वानि देव सवित्दुर्रितानि परा सुव| यद् भद्रं तन्न आ सुव||’ इस मंत्र और पूर्वोक्त गायत्री मंत्र; (ॐ भूभुर्वः स्वः| तत्सवितुर्व-रेणयं भर्गो देवस्य धीमहि| धियो यो नः प्रचोदयात्||) से आहुति देनी चाहियें| सामग्री को तीन १. अनामिका (हाथ की दूसरी उंगली जिसमें अँगूठी पहनते हैं), २. मध्यमा (बीच की लम्बी उंगली) और ३. (अँगूठे) से पकड़ना चाहिये| ‘स्विष्टकृत आहुति’ का अर्थ है ‘इष्टसुखकारिणी’ अर्थात् अच्छे प्रकार से चाहे हुए सुख को (प्रदान) करने वाली आहुति (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिकाः राजधर्मविषय) स्विष्टकृत़् अर्थात् अच्छे प्रकार से सुख को करने वाला| प्रधान यज्ञ के पश्चात् ही स्विष्टकृत आहुति देने का विधान है| यह आहुति प्रधान हवन की पुष्कलता के लिये होती है अतः यज्ञ की समाप्ति पर ही दि जाती है, पहले नहीं| किसी भी सुपात्र व्यक्ति या संस्था के कल्याण तथा उत्थान हेतु प्रदान की जाने वाली सहायता राशी तथा वस्तु ‘दान’ कहाती है| ‘दान’ श्रध्दा और प्रेम से भेंट किया जाता है| यज्ञ के सन्दर्भ में ‘दान’ की परिभाषा है-त्याग एवं समर्पण भाव से अपना सर्वस्व ईश्वर को अर्पित करना| स्मरण रहे की दान माँगा नहीं जाता, अपनी इच्छा से भेंट किया जाता है| दान की वस्तुएँ-फल, वस्त्र, बरतन, आभूषण, धनराशी इत्यादि अनेक उपयोगी वस्तुएँ भेंट की जा सकती हैं| विद्या-दान सर्वश्रेष्ट दान कहाता है| (ऋ.१.१२०.६) उत्तम दाता उसको कहते हैं जो देश, काल और पात्र को जानकर सत्य विद्या, धर्म की उन्नति रूप परोपकारार्थ देवे| सत्यपुरुषों की ही सेवा और सुपात्रों को दान किया करो| (यजु. १.१०२.५) यज्ञ के ब्रह्मा का कर्तव्य/काम है यज्ञकर्म की गतिविधियों का बारीकी से निरीक्षण करना, होने वाली त्रुटियों को सुधारना तथा मार्गदर्शन करना| यदि यज्ञ के दौरान त्रुटियाँ राह जाती हैं तो उसका उत्तरदायित्व ब्रह्मा पर होता है| देखा गया है कि ब्रह्मा/पुरोहितगण यज्ञकर्म कराने के बदले में अपने समय का मुआवज़ा ‘धन’ माँगते हैं जो एक अवैदिक परम्परा है| यज्ञकर्म करने से यजमान को सांसारिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति होती है, मोक्ष की नहीं| मोक्ष की प्राप्ति होती है-वेदाध्ययन करके वेदोक्त आचरण से, मन, वचन और कर्म द्वारा सत्याचरण से, पातंजलि अष्टांग योग के अभ्यास से तथा निष्काम कर्मो के करने से और ईश्वर समर्पण से| स्वर्ग कहते हैं-संसार में सब सुख-सुविधओं के साथ जीवन जीने को, अनुकूल परिस्थितियों में जीने को, जिस घर में नित-प्रतिदिन संध्योपासना होती हो, नियमित रूप से यज्ञ होता हो, घर में सुख-सम्पत्ति-समृद्धि हो, शांति हो, सुशिक्षित धर्मपत्नी और चरित्रवान पति हो, उनकी आज्ञाकारी संतानें हो, वैदिक सन्यासियों, विद्वानों, अतिथियों और मित्रो का आवागमन हो, सभी एक-दूसरे की बात मानते हों आदि जहाँ ऐसी परिस्थितियॉ हों, समझो वह घर स्वर्ग है अन्यथा विपरीत परिस्थितियों को ‘नरक’ कहते हैं| सांसारिक सुख का सम्बन्ध भौतिक शरीर से होता है अतः सुख में कहीं न कहीं दुःख मिश्रित होता है और सुख का अंत दुःख ही होता है अतः हमें मोक्ष की तीव्र इच्छा रखनी चाहिये| मोक्ष अर्थात् सब प्रकार के दुःखो से छुट जाना| हवन से वायु शुध्द होकर सुवृष्टि होती है, उससे शरीर निरोग और बुध्दी विशद होती है, विद्या प्राप्त होती है और स्वर्ग अर्थात् सुख की प्राप्ति होती है| (उपदेशमंजरी) |

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💯✔ #आहुति के दौरान “#स्वाहा” #क्यों कहा जाता है?

#स्वाहा का महत्व हममें से ज्यादातर नहीं जानते हैं। ऋग्वैदिक आर्यों ने यज्ञीय परंपरा के दौरान देवताओं तक हविष्य पहुंचाने के लिए अग्नि का प्रयोग आरंभ किया। किंतु यज्ञ वेदी में हवि डालने के दौरान “स्वाहा” का उच्चारण किया जाता था। स्वाहा का अर्थ ही अपने आप में बहुत रोचक है।

देव आह्वान के निमित्त मंत्र पाठ करते हुए #स्वाहा का उच्चारण कर निर्धारित हवन सामग्री का भोग अग्नि के माध्यम से देवताओं को पहुंचाते हैं। इस स्वाहा का निर्धारित नैरुक्तिक अर्थ है – सही रीति से पहुंचाना परंतु क्या और किसको? यानि आवश्यक भौगिक पदार्थ को उसके प्रिय तक। हवन अनुष्ठान की ये आखिरी और सबसे महत्वपूर्ण क्रिया है। कोई भी यज्ञ तब तक सफल नहीं माना जा सकता है जब तक कि हविष्य का ग्रहण देवता न कर लें। किंतु देवता ऐसा ग्रहण तभी कर सकते हैं जबकि अग्नि के द्वारा “स्वाहा” के माध्यम से अर्पण किया जाए।

निश्चित रूप से मंत्र विधानों की संरचना के आरंभ से ही इस तथ्य पर विचार प्रारंभ हो चुका था कि  आखिर कैसे हविष्य को उनके निमित्त देव तक पहुंचाया जाए? विविध उपायों द्वारा कई कोशिशें याज्ञिक विधान को संचालित करते वक्त की गईं। आखिरकार अग्नि को माध्यम के रूप में सर्वश्रेष्ठ पाया गया तथा उपयुक्ततम शब्द के रूप में “स्वाहा” का गठन हुआ।       

अग्नि और #स्वाहा से रिलेटेड पौराणिक आख्यान भी बेहद रोचक हैं। #श्रीमद्भागवत तथा #शिव_पुराण में #स्वाहा से संबंधित वर्णन आए हैं। इसके अलावा #ऋग्वेद, #यजुर्वेद आदि वैदिक ग्रंथों में अग्नि की महत्ता पर अनेक सूक्तों की रचनाएं हुई हैं।

पौराणिक कथाओं के अनुसार, #स्वाहा #दक्ष #प्रजापति की पुत्री थीं जिनका विवाह #अग्निदेव के साथ किया गया था। #अग्निदेव को हविष्यवाहक भी कहा जाता है। ये भी एक रोचक तथ्य है कि #अग्निदेव अपनी #पत्नी_स्वाहा के माध्यम से ही हविष्य ग्रहण करते हैं तथा उनके माध्यम यही हविष्य आह्वान किए गए देवता को प्राप्त होता है। एक और पौराणिक मान्यता के अनुसार अग्निदेव की पत्नी स्वाहा के #पावक, #पवमान और #शुचि नामक तीन पुत्र हुए।

इसके अलावा भी एक अन्य रोचक कहानी भी स्वाहा की उत्पत्ति से जुड़ी हुई है।  इस मान्यता के अनुसार, स्वाहा प्रकृति की ही एक कला थी, जिसका विवाह अग्नि के साथ देवताओं के आग्रह पर सम्पन्न हुआ था। भगवान #श्रीकृष्ण ने स्वयं #स्वाहा को ये वरदान दिया था कि केवल उसी के माध्यम से देवता हविष्य को ग्रहण कर पाएंगे।   

यज्ञीय प्रयोजन तभी पूरा होता है जबकि आह्वान किए गए देवता को उनका पसंदीदा भोग पहुंचा दिया जाए। हविष्य के याज्ञिक सामग्रियों में मीठे पदार्थ का भी शामिल होना आवश्यक है तभी देवता संतुष्ट होते हैं। और सभी वैदिक व पौराणिक विधान #अग्नि को समर्पित मंत्रोच्चार  एवं #स्वाहा के द्वारा हविष्य सामग्री को देवताओं तक पहुंचने की पुष्टि करते हैं.

#सदगुरुदेव_परम_पूज्य_श्री_पारसमुनि_महाराज_साहेब
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💯✔ #स्वाहा और #स्वधा में #अंतर

जब हम किसी देवी-देवता का यज्ञ या हवन करतें हैं तो आहुति के समय स्वाहा अथवा स्वधा शब्द का उच्चारण करतें हैं । आइये जानें कि स्वाहा अथवा स्वधा कौन है और आहुति के समय इसका उच्चारण क्यों किया जाता है।

#स्वाहा शब्‍द संस्‍कृत के ‘सु’ उपसर्ग तथा ‘#आह्वे’ धातु से बना है । ‘सु’ उपसर्ग ‘अच्‍छा या सुन्‍दर या ठीक प्रकार से’ का बोध कराने के लि‍ए शब्‍द या धातु के साथ जोड़ा जाता है और ‘आह्वे’ का अर्थ बुलाना होता है । अर्थात यज्ञ करते समय उद्देश्य तथा आदर पूर्वक कि‍सी देवता को आमंत्रित कर उचि‍त रीति‍ से आहुति देने लि‍ए स्‍वाहा शब्‍द का प्रयोग कि‍या जाता है।

#शिवपुराण की #कथा के अनुसार

 दक्ष प्रजापति की कई पुत्रियां थी। उनमें से एक पुत्री का विवाह उन्होंने अग्नि देवता के साथ किया था। उनका नाम था स्वाहा। अग्नि अपनी पत्नी स्वाहा द्वारा ही भोजन ग्रहण करते है। इसलिये देवताओं को आहूति देने के लिए स्वाहा शब्द का उच्चारण किया जाता है।

दक्ष ने अपनी एक अन्य पुत्री #स्वाधा का विवाह #पितरों के साथ किया था। अत: पितर अपनी पत्नी स्वधा द्वारा ही भोजन ग्रहण करतें हैं। इसलिये पितरों को आहूति देने के लिए स्वाहा के स्थान पर स्वधा शब्द का उच्चारण किया जाता है।

#श्रीमद्भागवत के अनुसार – ब्राह्मणों और क्षत्रियों के यज्ञों की हवि देवताओं तक नहीं पहुंचती थी, अत: वे सब ब्रह्मा के पास गये। ब्रह्मा उनके साथ श्री कृष्ण की शरण में पहुंचे। कृष्ण ने उन्हें प्रकृति की पूजा करने के लिए कहा। प्रकृति की कला ने प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहा। उन्होंने वर स्वरूप सदैव हवि प्राप्त करते रहने की इच्छा प्रकट की।

उसने देवताओं को हवि मिलने के लिए आश्वस्त किया। वह स्वयं कृष्ण की आराधिका थी। प्रकृति की उस कला से कृष्ण ने कहा कि वह अग्नि की पत्नी स्वाहा होगी। उसी के माध्यम से देवता तृप्त हो जायेंगे। अग्नि ने वहां उपस्थित होकर उसका पाणिग्रहण किया। स्वाहा के गर्भ से पावक, पवमान तथा शुचि नाम के पुत्र उत्पन्न हुये। इन तीनों से पैंतालीस प्रकार के अग्नि प्रकट हुये। वे ही पिता तथा पितामह सहित उनचास अग्नि कहलाते हैं ।

ब्रह्म वैवर्त पुराण पृ. 324
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 40-41

भगवान नारायण कहते हैं– ब्रह्मन! देवी #स्वधा का ध्यान-स्तवन वेदों में वर्णित है, अतएव सबके लिये मान्य है। शरत्काल में आश्विन मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को मघा नक्षत्र में अथवा श्राद्ध के दिन यत्नपूर्वक भगवती स्वधा की पूजा करके तत्पश्चात् श्राद्ध करना चाहिये। जो अभिमानी #ब्राह्मण #स्वधा देवी की पूजा न करके श्राद्ध करता है, वह श्राद्ध और तर्पण के फल का भागी नहीं होता– यह सर्वथा सत्य है। ‘भगवती स्वधा ब्रह्मा जी की मानसी कन्या हैं, ये सदा तरुणावस्था से सम्पन्न रहती हैं। पितरों और देवताओं के लिये सदा पूजनीया हैं। ये ही श्राद्धों का फल देने वाली हैं। इनकी मैं उपासना करता हूँ।’ इस प्रकार ध्यान करके शालग्राम शिला अथवा मंगलमय कलश पर इनका आवाहन करना चाहिये। तदनन्तर मूलमन्त्र से पाद्य आदि उपचारों द्वारा इनका पूजन करना चाहिये। महामुने! ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं स्वधादेव्यै स्वाहा’ इस मन्त्र का उच्चारण करके ब्राह्मण इनकी पूजा, स्तुति और इन्हें प्रणाम करें। ब्रह्मपुत्र विज्ञानी नारद! अब स्तोत्र सुनो। यह स्तोत्र मानवों के लिए सम्पूर्ण अभिलाषा प्रदान करने वाला है। पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने इसका पाठ किया था।
ब्रह्मा जी बोले- ‘#स्वधा’ शब्द के उच्चारणमात्र से मानव तीर्थस्नायी समझा जाता है। वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर वाजपेय-यज्ञ के फल का अधिकारी हो जाता है। ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाए तो श्राद्ध, बलि और तर्पण के फल पुरुष को प्राप्त हो जाते हैं। श्राद्ध के अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है, वह सौ श्राद्धों का फल पा लेता है– इसमें संशय नहीं है। जो मानव ‘स्वधा, स्वधा, स्वधा’ इस पवित्र नाम का त्रिकाल संध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता और प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है। देवि! तुम पितरों के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणों के लिये जीवनस्वरूपिणी हो। तुम्हें श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैं। तुम पितरों की तुष्टि, द्विजातियों की प्रीति तथा गृहस्थों की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकलकर बाहर जाओ। सुव्रते! तुम नित्य हो, तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल में तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है। तुम ऊँ, नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो। 

चारों वेदों द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपों का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगों में इन छहों की बड़ी मान्यता है। इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गाकर ब्रह्मा जी अपनी सभा में विराजमान हो गये। इतने में सहसा भगवती स्वधा उनके सामने प्रकट हो गयीं। तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरों के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे आनन्द से विह्वल हो गये। यही भगवती स्वधा का पुनीत स्तोत्र है। जो पुरुष समाहित-चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया। उसको वेद पाठ का फल मिलता है।

#स्वाहा ओर #स्वधा_अन्तर

अग्नि में जो भी आहुति दी जायेगी , चाहे किसी के लिए हो स्वाहा ही बोला जाता है  !!
पर अग्नि के बाहर पितरों को स्वधा बोला जाता है. !!!

#स्वधा का करके आह्वान, पितरों की होती है भूख शांतः ब्रहमा की मानसपुत्री “स्वधा” की कथा

स्वधा, स्वधा, स्वधा……..

“स्वधास्तोत्रम्” पाठ के अनुसार स्वधा,स्वधा, स्वधा, इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के फल प्राप्त हो जाते है 
सर्व पितृं शान्ति! शान्ति!! शान्ति!!!
हे मेरे पितृगण !

मेरे पास श्राद्ध के उपयुक्त न तो धन है, न धान्य। हां मेरे पास आपके लिए श्रद्धा है। मैँ इन्ही के द्वारा आपको तृप्त करना चाहता हूँ। आप तृप्त हो जाएं। मैँ दोनो भुजायेँ आकाश की ओर उठा कर आप को नमन करता हूँ। आप को नमस्कार है।

श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराणे प्रकृतिखण्डे ब्रह्माकृतं स्वधास्तोत्रम् पाठ (श्राद्ध, काल और पितरो के निमित्त तर्पण फल प्राप्ति हेतु पाठ)

ब्रह्मोवाच

1. स्वधोच्चारणमात्रेण तीर्थस्नायी भवेन्नरः। मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाजपेयफलं लभेत्॥

अर्थ- ब्रह्माजी बोले स्वधा शब्द के उच्चारण मात्र से मानव तीर्थ स्नायी हो जाता है। वह सम्पूर्ण पापोँ से मुक्त होकर वाजपेय यज्ञ के फल का अधिकरी हो जाता है॥

2. स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं यदि वारत्रयं स्मरेत्। श्राद्धस्य फलमाप्नोति कालस्य तर्पणस्य च॥

अर्थ – स्वधा,स्वधा,स्वधा, - इस प्रकार यदि तीन बार स्मरण किया जाये तो श्राद्ध, काल और तर्पण के पुरुष को प्राप्त हो जाते हैँ

3. श्राद्धकाले स्वधास्तोत्रं यः श्रृणोति समाहितः। लभेच्छाद्धशतानां च पुण्यमेव न संशयः॥

अर्थ-श्राद्धके अवसर पर जो पुरुष सावधान होकर स्वधा देवी के स्तोत्र का श्रवण करता है,वह सौ श्राद्धो का पुण्य पा लेता है, इसमेँ संशय नहीँ है।

4. स्वधा स्वधा स्वधेत्येवं त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः। प्रियां विनीतां स लभेत्साध्वीँ पुत्रं गुणान्वितम्॥

अर्थ- जो मानव स्वधा, स्वधा, स्वधा इस पवित्र नाम का त्रिकाल सन्ध्या के समय पाठ करता है, उसे विनीत, पतिव्रता एवं प्रिय पत्नी प्राप्त होती है तथा सद्गुण सम्पन्न पुत्र का लाभ होता है।

5. पितृणां प्राणतुल्या त्वं द्विजजीवनरूपिणी। श्राद्धाधिष्ठातृदेवी च श्राद्धादीनां फलप्रदा॥

अर्थ- देवि ! तुम पितरोँ के लिये प्राणतुल्या और ब्राह्मणोँ के लिये जीवन स्वरूपिणी हो। तुम्हेँ श्राद्ध की अधिष्ठात्री देवी कहा गया है। तुम्हारी ही कृपा से श्राद्ध और तर्पण आदि के फल मिलते हैँ।

6. बहिर्गच्छ मन्मनसः पितृणां तुष्टिहेतवे। सम्प्रीतये द्विजातीनां गृहिणां वृद्धिहेतवे॥

अर्थ- दवि ! तुम पितरोँ की तुष्टि, द्विजातियोँ की प्रीति तथा गृहस्थोँ की अभिवृद्धि के लिये मुझ ब्रह्मा के मन से निकल कर बाहर आ जायो।

7. नित्या त्वं नित्यस्वरूपासि गुणरूपासि सुव्रते। आविर्भावस्तिरोभावः सृष्टौ च प्रलये तव॥

अर्थ- सुव्रते! तुम नित्य हो तुम्हारा विग्रह नित्य और गुणमय है। तुम सृष्टि के समय प्रकट होती हो और प्रलयकाल मेँ तुम्हारा तिरोभाव हो जाता है।

8. स्वस्तिश्च नमः स्वाहा स्वधा त्वं दक्षिणा तथा। निरूपिताश्चतुर्वेदे षट् प्रशस्ताश्च कर्मिणाम्॥

अर्थ- तुम ॐ, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा एवं दक्षिणा हो॥ चारोँ वेदोँ द्वारा तुम्हारे इन छः स्वरूपोँ का निरूपण किया गया है, कर्मकाण्डी लोगोँ मेँ इन छहोँ की बड़ी मान्यता है।

9. पुरासीस्त्वं स्वधागोपी गोलोके राधिकासखी। धृतोरसि स्वधात्मानं कृतं तेन स्वधा स्मृता॥

अर्थ- हे देवि ! तुम पहले गोलोक मेँ "स्वधा" नाम की गोपी थी और राधिका की सखी थी, भगवान श्री कृष्ण ने अपने वक्षः स्थल पर तुम्हेँ धारण किया, इसी कारण तुम "स्वधा" नाम से जानी गयी॥

10. इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मलोके च संसदि। तस्थौ च सहसा सद्यः स्वधा साविर्बभूव ह॥

अर्थ- इस प्रकार देवी स्वधा की महिमा गा कर ब्रह्मा जी अपनी सभा मेँ विराजमान हो गये। इतने मेँ सहसा भगवती स्वधा उन के सामने प्रकट हो गयी॥

11. तदा पितृभ्यः प्रददौ तामेव कमलाननाम्। तां सम्प्राप्य ययुस्ते च पितरश्च प्रहर्षिताः॥

अर्थ- तब पितामह ने उन कमलनयनी देवी को पितरोँ के प्रति समर्पण कर दिया। उन देवी की प्राप्ति से पितर अत्यन्त प्रसन्न हो कर अपने लोक को चले गये॥

12. स्वधास्तोत्रमिदं पुण्यं यः श्रृणोति समाहितः। स स्नातः सर्वतीर्थेषु वेदपाठफलं लभेत्॥

अर्थ- यह भगवती स्वधा का पुनीत सतोत्र है। जो पुरुष समाहित चित्त से इस स्तोत्र का श्रवण करता है, उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थोँ मेँ स्नान कर लिया और वह वेदपाठ का फल प्राप्त कर लेता है॥

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये
प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसण्वादे स्वधोपाख्याने स्वधोत्पत्ति तत्पूजादिकं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ स्वधास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

स्वधा, स्वधा, स्वधा...

इस प्रकार श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के प्रकृतिखण्ड मेँ ब्रह्माकृत "स्वधा स्तोत्र" सम्पूर्ण हुया॥ सर्व पितृं शान्ति शान्ति शान्ति।

#सदगुरुदेव_परम_पूज्य_श्री_पारसमुनि_महाराज_साहेब
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💯✔ हवन में आहुति देते समय क्यों कहते है ‘#स्वाहा’??
#अग्निदेव की दाहिकाशक्ति है ‘#स्वाहा’!!!!!

#अग्निदेव में जो जलाने की तेजरूपा (दाहिका) शक्ति है, वह देवी स्वाहा का सूक्ष्मरूप है। हवन में आहुति में दिए गए पदार्थों का परिपाक (भस्म) कर देवी स्वाहा ही उसे देवताओं को आहार के रूप में पहुंचाती हैं, इसलिए इन्हें ‘परिपाककरी’ भी कहते हैं।

#सृष्टिकाल में #परब्रह्म #परमात्मा स्वयं ‘#प्रकृति’ और ‘#पुरुष’ इन दो रूपों में प्रकट होते हैं। ये प्रकृतिदेवी ही #मूलप्रकृति या #पराम्बा कही जाती हैं। ये आदिशक्ति अनेक लीलारूप धारण करती हैं। इन्हीं के एक अंश से देवी स्वाहा का प्रादुर्भाव हुआ जो यज्ञभाग ग्रहणकर देवताओं का पोषण करती हैं।

सृष्टि के आरम्भ की बात है, उस समय #ब्राह्मण लोग #यज्ञ में देवताओं के लिए जो हवनीय सामग्री अर्पित करते थे, वह देवताओं तक नहीं पहुंच पाती थी।

 देवताओं को भोजन नहीं मिल पा रहा था इसलिए उन्होंने ब्रह्मलोक में जाकर अपने आहार के लिए ब्रह्माजी से प्रार्थना की। देवताओं की बात सुनकर #ब्रह्माजी ने #भगवान #श्रीकृष्ण का ध्यान किया। भगवान के आदेश पर #ब्रह्माजी देवी मूलप्रकृति की उपासना करने लगे। इससे प्रसन्न होकर देवी मूलप्रकृति की कला से देवी ‘#स्वाहा’ प्रकट हो गयीं और ब्रह्माजी से वर मांगने को कहा।

ब्रह्माजी ने कहा–’आप अग्निदेव की दाहिकाशक्ति होने की कृपा करें। आपके बिना अग्नि आहुतियों को भस्म करने में असमर्थ हैं। आप अग्निदेव की गृहस्वामिनी बनकर लोक पर उपकार करें।’

ब्रह्माजी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण में अनुरक्त देवी स्वाहा उदास हो गयीं और बोलीं–’#परब्रह्म श्रीकृष्ण के अलावा संसार में जो कुछ भी है, सब भ्रम है। तुम जगत की रक्षा करते हो, शंकर ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की है। शेषनाग सम्पूर्ण विश्व को धारण करते हैं। गणेश सभी देवताओं में अग्रपूज्य हैं। यह सब उन भगवान श्रीकृष्ण की उपासना का ही फल है।’

यह कहकर वे भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिए तपस्या करने चली गयीं और वर्षों तक एक पैर पर खड़ी होकर उन्होंने तप किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गए।
देवी स्वाहा के तप के अभिप्राय को जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा–’तुम वाराहकल्प में मेरी प्रिया बनोगी और तुम्हारा नाम ‘नाग्नजिती’ होगा।

 राजा नग्नजित् तुम्हारे पिता होंगे। इस समय तुम दाहिकाशक्ति से सम्पन्न होकर अग्निदेव की पत्नी बनो और देवताओं को संतृप्त करो। मेरे वरदान से तुम मन्त्रों का अंग बनकर पूजा प्राप्त करोगी। जो मानव मन्त्र के अंत में तुम्हारे नाम का उच्चारण करके देवताओं के लिए हवन-पदार्थ अर्पण करेंगे, वह देवताओं को सहज ही उपलब्ध हो जाएगा।’

भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से अग्निदेव का देवी स्वाहा के साथ विवाह-संस्कार हुआ। शक्ति और शक्तिमान के रूप में दोनों प्रतिष्ठित होकर जगत के कल्याण में लग गए। तब से ऋषि, मुनि और ब्राह्मण मन्त्रों के साथ ‘स्वाहा’ का उच्चारण करके अग्नि में आहुति देने लगे और वह हव्य पदार्थ देवताओं को आहार रूप में प्राप्त होने लगा।

जो मनुष्य स्वाहायुक्त मन्त्र का उच्चारण करता है, उसे मन्त्र पढ़ने मात्र से ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है। स्वाहाहीन मन्त्र से किया हुआ हवन कोई फल नहीं देता है।

देवी #स्वाहा_के_सोलह_नाम हैं–

1. स्वाहा, 
2. वह्निप्रिया, 
3. वह्निजाया, 
4. संतोषकारिणी, 
5. शक्ति, 
6. क्रिया, 
7. कालदात्री, 
8. परिपाककरी, 
9. ध्रुवा, 
10. गति, 
11. नरदाहिका, 
12. दहनक्षमा, 
13. संसारसाररूपा, 
14. घोरसंसारतारिणी, 
15. देवजीवनरूपा, 
16. देवपोषणकारिणी।

इन नामों के पाठ करने वाले मनुष्य का कोई भी शुभ कार्य अधूरा नहीं रहता। वह समस्त सिद्धियों व मनोकामनाओं को प्राप्त कर लेता है।

#सदगुरुदेव_परम_पूज्य_श्री_पारसमुनि_महाराज_साहेब

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